एक दिन
कातर हृदय से,
करुण स्वर से,
और उससे भी अधिक
डब-डब दृगों से,
था कहा मैंने
कि मेरा हाथ पकड़ो
क्योंकि जीवन पन्थ के अब कष्ट
एकाकी नहीं जाते सहे
और तुम भी तो किसी से
यही कहना चाहती थी;
पन्थ एकाकी
तुम्हें भी था अखरता;
एक साथी हाथ
तुमको भी किसी का
चाहिए था,
पर न मेरी तरह तुमने
वचन कातर कहे
ख़ैर, जीवन के
उतार-चढ़ाव हमने
पार कर डाले बहुत-से;
अन्धकार, प्रकाश
आँधी, बाढ़, वर्षा
साथ झेली;
काल के बीहड़ सफ़र में
एक-दूजे को
सहारा और ढाढ़स रहे
लेकिन,
शिथिल चरणे,
अब हमें संकोच क्यों हो
मानने में,
अब शिखर ऐसा
कि हम-तुम
एक-दूजे को नहीं पर्याप्त,
कोई तीसरा ही
हाथ मेरा औ’ तुम्हारा गहे!