स्वीकृतियों से नहीं रचना
मुझे अपना भविष्य,
मैं अस्वीकृति को ही
ढाल दूँगी रण में।
असम्भव के मातम को
परिवर्तित करूँगी मैं
विजय गाथा में।
चल रही मैं शूलपथ पर
अपने ही लहू को
विजय तिलक बना!
तुम मेरे लिए
उतार लाए हो
सूर्य का रथ,
तो युद्धभूमि से अब
नहीं लौटूँगी ख़ाली हाथ
नफ़रत और अँधेरे का
वध करके लौटूँगी,
विसंगतियों और असमानता
को कर दूँगी समतल,
करूँगी ख़ात्मा
हर ग़रीब की
बेबसी का भी।
तुम करना इंतज़ार
जैसे कृष्ण करते रहे
अपने अर्जुन का
युद्धभूमि में साथ तो
कभी नेपथ्य में रहकर।
जीवन की रणभूमि के
आलोकित होने तक
तुम करना प्रतीक्षा।

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