तुम्हारे समानांतर
चलते हुए
जब थकने लगेंगे
पाँव मेरे,
वक़्त की गर्त
चेहरे पर
झुर्रियों की शक्ल
अख़्तियार कर लेगी,
जिस्म करने लगेगा
इसरार मुझसे
अंतिम सफ़र पर चलने के लिए,
उस वक़्त भी
आख़िरी आरामगाह में
लकड़ियों के बोझ तले
झाँकती ऑंखें
ढूँढेंगी कोई हर्फ़ अपने लिए
तुम्हारे लिखे
अफ़सानों में,
और उँगलियाँ
पलट रही होंगी
कोई सफ़हा
तुम्हारी किसी किताब का…

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