‘Udasi Ki Been’, a poem by Rashmi Saxena

अर्थशास्त्र के
नोबेल पुरस्कार समारोह के बाहर
कतारबद्ध खड़े
शताब्दियों से भूख से बिलखते बच्चे
अपनी बारी की प्रतीक्षा में
दम तोड़ गये

इतिहास सम्भालकर नहीं रख पाए
उनके नरकंकाल, ममी, पिरामिड
स्तम्भ, गुम्बद, अथवा क़िला या पाण्डुलिपियाँ

सत्ताएँ छुपाती रहीं हर बार
उनकी भूख और मौत के सभी
सही-सही आँकड़े

बुद्धजीवियों ने तैयार किए
योजनाओं के ख़ाके
उनमें भर दिए गए देश की
उन्नति के सात रंग,
गरीबी का आठवाँ रंग
अभी मान्यता से बाहर रखा गया

भुखमरों के हाथों थमायी गयीं
ग़रीबी हटाओ नारों की तख़्तियाँ
जो धीरे-धीरे परिवर्तित होती गयीं
अमीरी बचाओ के सघन आंदोलनों में

रोटी कभी भी
लाँघ नहीं पायी संसद की
ऊँची चौखटें,
अधमरी पसीने से लथपथ
लगा रही चक्कर सदियों से
सत्ता के गलियारों में
भूख से लथपथ

बच्चों की थालियों में
अर्थशास्त्र खोज रहा है अपना
अस्तित्व

और पुरस्कार के
रंगारंग कार्यक्रम में अभी भी
बज रही है
उदासी की कोई बीन!

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