माँएँ सावधान रहीं हमेशा बेटियों के लिए-
दुपट्टा फैला कर ले, चुस्त कपड़े न पहन,
सीना तान के न चल, बाल तेल लगाकर बांध,
नज़रें झुकाकर चल, दिन ढले घर में रह,
फ़ब्तियों को अनसुना कर, बड़ों के सामने मुँह बन्द रख।

अपने अन्तःवस्त्र ढाककर सुखा, महीने के दिनों में,
मुँह अन्धेरे नहा, बाप-भाई से दूरी बना,
एक गिलास दूध दे, चार फाँक सेब जुटा,
नया आयरन का सिरप ला,
लुटायी माँओं ने सारी ममता।

वक्ष, नितम्ब, योनि, लिंग, पुरुष पर परिचर्चा रही निषेध,
माँएँ रहीं सतर्क, बेटियों का मुँह हाथ से पकड़,
“करमजली जो करना अपने घर में जाकर करना।”
‘ज़्यादा आग लगी है’ कहते हुए उछालती हैं गरम चिमटा,
दो घमक्का पीठ पर लगा, सोचती हैं- समय रहते सम्भाल लिया सब।

नहीं जान पातीं कभी कि जिन शब्दों की परिचर्चा भी रही वर्जित,
वही शब्द-अंग रौंदे गए संस्कारी बेटियों के, संस्कारवानों के द्वारा, संस्कारवश।
दबे-ढके माँओं ने दबानी चाही बात,
बेटियों को बालों से झकझोरा, “और डांव-डांव घूम बाल खोलकर, हीरोईन बनने का शौक़ था ना!”
“और खिलखिला-खिलखिलाकर हँस!”
“उस दिन आँखों में सुरमा क्यूँ लगाया था!”
“खेलने की बेहोशी में दुपट्टा क्यूँ हटाया था?”

माँओं ने एक शब्द भी न कहा कुछ उन संस्कारवानों को,
वो बड़े थे, पुरुष थे, सम्भ्रान्त थे, रिश्तेदार थे।
पचास खोट निकाले बेटियों में, साँसों तक पर नज़रें गड़ाए रखीं,
बांध आयीं मन्नत का धागा पुराने मन्दिर पर-
“है शिव जी, समय रहते घर की लाज बचा दो,
जल्दी से इस करमजली की नईया पार लगा दो।”

स्कूल, काॅलेज लाने ले जाने की ड्यूटी दी अपने चहेते मुँहबोले भाई को,
तो अकेले घर पर होने पर, आगाह कर जातीं पड़ोसी काकी को।
इतनी भोली थीं माँएँ, गिद्धों को सौंपा बेटियों का सुरक्षा भार,
बेटियाँ नोची गयीं सुरक्षित किए जाने वाले हाथों से।
पर कहना मना था कुछ भी क्योंकि कुछ शब्द वर्जित होते हैं,
सदैव संस्कारवानों के लिए।

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