सच कहो तो अब
करनी होगी खुलकर बात कि
ठीक कौन-सा क्षण था वह
जब फूलों ने डाल दी थीं गर्दनें
और एक सिसकी
बहुत धीमे-से
फूट पड़ी थी डाल-डाल से
वैसे तो शपथ थी आँखों को
न बहने की
और कोशिश भी कि
दब जाएँ सिसकियाँ
पंछियों की चहचहाहट में।

ऐसा कौन-सा समय था जब
रास्तों ने ले लिए अपने-अपने मोड़
और फिर मिले भी
कभी दुबारा तो
पहचाना भी न जा सके
इतना धुंधला हो जाए
अब तक किया गया सफ़र?

ऐसा क्षण, ऐसा समय
ऐसा अपना बहुत कुछ
रह जाता है अनुत्तरित
यह जानते हैं हम दोनों
फिर भी कुछ ऐसा होगा
ज़रूर शेष
जैसे अब बुझने वाली ही है लौ
ऐसा लगने पर भी
धीमे-धीमे से जलती हुई।

फिर चलो उठो न
लो थोड़ा-सा ही तेल
भिगाना ज़रा-सा बत्ती को
यह देखो
मैंने अपनी अंजुरी धरी हुई है
दीये के चारों ओर

यह तूफ़ान की आहट है
क्या तुम्हें सुनायी
नहीं दे रही है?

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