आज एक पतंग को उड़ते देखा,

वैसे तो देखा कई बार था मगर आज ग़ौर किया

उड़ते पंछियों को अक्सर देखती थी

पर आज एक पतंग को उड़ते देखा, कुछ अलग सी बात थी उसमें बहुत ज़ोर की चाह आसमान को छू लेने की शायद,

अकेले आसमान में सबसे ऊँचाई पर कोई पंछी भी नहीं था जहाँ पहुँच रहा, वहाँ पहुँच कर इठला रही थी वो,

मैंने थोड़ा और ग़ौर किया- इस पतंग की डोर तो किसी और के हाथ में है जो नीचे खड़ा है

और ये पतंग उसकी अनन्त कल्पना का एक अंश है जो आज उड़ान भर रही है, और वो उसकी छाया बना नीचे खड़ा है जो अपनी इच्छा सबसे ऊँचाई पर पहुँचने की आसमान को छूने की, उसे अपनी मुट्ठी में भर लेने की मानो पूरी करने में लगा हो…

यदि कोई उड़ रहा है आज बहुत ऊँचा तो ज़रूर उड़ाने वाला बहुत ही मज़बूत होगा।

मैं बहुत देर तक खड़ी रही अपनी बालकनी में और उस पतंग को ही निहारती रही, एक अजीब सा सुकून मिल रहा था उसे उड़ता देख के,

और इसी में मैं शाम का दिया जलाना भी भूल गयी, माँ से डाँट भी पड़ी थोड़ी मगर मैं तो ख़ुश थी

आँखें पतंग पर जो टिकी थीं, मैं बालकनी की मुँडेर पर और दिमाग़ में शब्द बुन रही थी जो उस अनुभव को बयान कर पाये।

तभी देखा पतंग की डोर जो तनी हुई थी एक सीध में, ढीली हो गई है और इधर-उधर लड़खड़ा रही है, नीचे की ओर गिर रही है। शायद पतंग उड़ाने वाले के हाथ थक गये होंगे और ध्यान भटक गया होगा,

तब तक आसमान में और भी कई पतंगे आ गई थी जो उड़ना सीख रहीं थी, ऊँचाई वाली पतंग फिर नीचे आई कुछ ही पल में फिर ऊपर जा कर तन गई,

मानो उन्हें चिढ़ा रही हो।

जो अब तक अकेली थी उसने प्रतिस्पर्धा छेड़ दी थी कई औरों में भी आसमान को छूने की, ऊँचाई की लत लगा दी थी,

ऊपर नीचे का सिलसिला जारी था पतंगों के बीच पर कुछ और देर बीत जाने के बाद देखा तो बाक़ी पतंगें तो उड़ रही थी मगर वो पतंग ग़ायब हो गयी थी।

या बाक़ियों के द्वारा काट दी गयी थी,

इस पतंग की नियति भी हम इंसानों के जैसी ही निकली।

 

(कैफे कॉफी डे (सीसीडी) के संस्थापक वीजी सिद्धार्थ को एक श्रद्धांजलि इस कविता के द्वारा)

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