प्रेम स्त्री विमर्श स्वार्थ संलिप्त
अंतर्व्यथा वेदना को सिरजती कविताएँ
विस्मय से देखती हैं और
वैचारिक संतुलन बनाए रखने के
सजग प्रयास में जुट जाती हैं।

आत्ममुग्धता! अपने दुःखों को पहाड़
बना देती है
और दूसरों की पीड़ा उपत्यकाएँ
समतल भूमि की हरीतिका।

धरती और आकाश
एक दूसरे के पूरक
किन्तु धरा सदैव दयनीय प्रताड़ित कुण्ठित
क्यों मानती स्वयं को
आकाश की ऊँचाइयों ने
कभी अपनी पीड़ा, अपने द्वंद्व की
प्रच्छाया ही नहीं छोड़ी।

इन्द्रधनुष और आकाशगंगा का
क्षणिक वैशिष्ट्य
ग्रहण की विषमताओं के
आवरण बने।
आकाश रोया जी भरकर
बादलों के बहाने से…
अश्रुधारा अभिसिंचित करती रही
धरा के आर्तमन!

किसी का सुख
किसी के दुःख की व्याख्या थी!

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प्रीति कर्ण
कविताएँ नहीं लिखती कलात्मकता से जीवन में रचे बसे रंग उकेर लेती हूं भाव तूलिका से। कुछ प्रकृति के मोहपाश की अभिव्यंजनाएं।

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