मेरे आक़ा
खिड़कियों के सुनहरे शीशे
अब काले पड़ चुके हैं
उधर मेरा रेशमी लिबास
तार-तार
कमरबन्द के चमकीले गोटे में
पड़ चुकी फफून्द
तुम्हारे दिए चाबुक के निशान
मेरी पीठ से होते हुए
दिल तक जा पहुँचे हैं
जिस्म मेरा
नंगा होने लायक़ अब नहीं रहा
उस पर दुबके हैं दुनिया-भर के
अनाथ बच्चे
तार-तार मेरा लिबास
उतरते ही जिसके
एक इशारे पर
नहीं काँपने दूँगी उन बच्चों को
तुम्हारे जूतों की क़सम
मेरे आक़ा
मेरी-तुम्हारी आँखों की टकराहट से
नहीं पैदा होंगे अब
अँगूर के बाग़ान
सभ्यताएँ और थरथराएँगी—
तुम्हारे इरादों की जुम्बिश पर।
ब्रह्माण्ड सिकुड़कर
नहीं जाएगा तुम्हारे नथुनों में अब
तुम्हारी धमनियों में बहता
तीसरी दुनिया का लहू
बेग़ैरत अब नहीं रहा
रौंद रहा तुम्हारी
सैनिक संगीत-लिपियों को
लोकसंगीत अब
देख लो
ग़ौर से देख लो मेरे आक़ा
कि अब
असल में तुम नहीं रहे मेरे आक़ा,
नयी सदी का पहला आघात
हो चुका है तुम्हारी नाभि पर
तुम्हारी नाभि में
हलाक है आदमी की अधूरी यात्राएँ
ग़ौर से देख
अब मैं कनीज़ नहीं
औरत हूँ।
कुबेरदत्त की कविता 'स्त्री के लिए जगह'