सुनीता डागा की कविता ‘अभी-अभी’ | ‘Abhi Abhi’, a poem by Sunita Daga

नहीं हैं मेरे हौसले बुलंद
अभी-अभी
ज़मीं पर पकड़ बनायी है मैंने
हर पड़ाव पर दर्द खड़ा था
स्वागत में मेरे
एक कोने में तब
राहतों को चुपचाप खड़ा पाया था मैंने

मेरे सपनों को उगे नहीं हैं पर
अभी तो कुलबुला रहे हैं वे
मेरी उनींदी आँखों में
अभी-अभी तो जाना है मैंने
जीवन का संगीत
अभी-अभी सीख रही हूँ
गुनगुनाना मैं

किसी मुक़ाम पर पहुँचने की
नहीं है मुझे कोई जल्दबाज़ी
कि मुँह की खानी पड़ी मुझे

अपने एकांत से कुछ बतिया लूँ
अभी ख़ुद ही को कुछ जान लूँ
जानती हूँ बहुत कुछ है
अनजिया, अनकहा
प्रतीक्षा करना ख़ूब आता है मुझे!

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