‘Abhilasha’, a poem by Vikas Sharma

तुम हो शीतल पवन बसन्ती

सुबह-सुबह अंगड़ाई लेता,
साँस खींचकर
तुमको भर लेता हूँ बदन में

नाक को छूकर भीतर तक
इक ठण्डा-सा अहसास दिला
तुम प्राण फूँक देती
हो मुझमें।

गंगा का अमृत पानी तुम

जीवन के इन मरुस्थलों में
जब-जब प्यासा भटका हूँ मैं
पान तुम्हारा कर लेता हूँ

अधरों को छूकर अंतस् तक
तृप्त किए जाती हो मुझको
एक नया जीवन दे जाती।

रेशम-सी बालुई रेत हो

हारा थका हुआ मैं
जब भी
ढूँढता हूँ बिस्तर-सिरहाना,
फैल के सो जाता हूँ
तुम पर

नैनों को छूकर सपनों तक
मुझे उड़ा ले जाती हो तुम
एक नयी दुनिया दिखलाती।

बालू रेत, हवा और पानी
इनकी कोई आकृति नहीं है।

इनको कुछ अस्वीकार नहीं है,
और कोई स्वीकृति नहीं है।

जिस साँचे में ढालो
वैसे ढल जाते हैं,
प्रीत की भाँति
हर मौसम में फल जाते हैं।

जैसे तुम बेटी, बहिन, माँ, पत्नी
बनकर
हरेक रूप अपना लेती हो।
और प्रियतमा बनकर
मुझे रिझा लेती हो।

पानी, हवा, रेत जैसा
होना चाहता हूँ।
मैं भी प्रेयसी, तुम जैसा
होना चाहता हूँ।

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विकास शर्मा
विकास शर्मा (जन्म २७ मई १९६४) हनुमानगढ़ (राजस्थान) शिक्षा: BE (Mech); MBAविकास भारत की बड़ी कंपनियों में उच्च पदों पर कार्य कर चुके हैं और अभी पंजाब स्थित तलवंडी साबो पावर लिमिटेड में सीईओ के पद पर कार्यरत हैं.विकास को पेंटिंग, संगीत एवं लिखने का शौक़ है. उनकी कविताएँ दैनिक पत्रों में छप चुकी हैं.

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