आदर्श
एक वाचिक कलाबाज़ी
चेतना पर बोझ बनकर ठहर-सी गयी है,
इसके साथ चिपकी हुई शब्दावली
दम घोटने लग जाती है,
सारे यथार्थ चाहकर भी मुझे
बचा नहीं पाते हैं

आदर्श
एक छद्म भावावेग,
यथार्थ की मृत देह पर खड़ा
हँसता हुआ बहुरूपिया
जिसे निभाते-निभाते
मैं खो दूँगा स्वयं को ही

आदर्श
एक तुक्का
अनगिनत प्रयासों की विफलताओं के बीच
सफलता का भ्रम दिखाता खेल
जिसमें जीत की कोई गुंजाइश नहीं
हार को तय करते हैं सारे नियम

आदर्श
एक लेबल
भीड़ ने आकर धर दिया है
जो मेरे माथे पर
लोग आ-आकर
अपनी आकाँक्षाओं, अपेक्षाओं से मैली करती जा रहे हैं
मेरे अंतर्मन की दीवारें
चेतना पर हर पल बढ़ रहा है एक बोझ
और घुट रहा हूँ मैं…

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श्रवण
राजस्थान में प्राथमिक शिक्षा में शिक्षक रूप में कार्यरत। कविताएँ लिखने का शौक हैं।

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