वो भागती रही थी। न जाने कितनी देर तक। पैरों तले कभी जलती रेत, कभी कीचड़ और चुभते काँटों की परवाह किये बगैर। सांसें उखड़ने लगीं, जिस्म लरजने लगा, आँखों के आगे अँधेरा घिरने लगा। पांव अब और आगे बढ़ने में अपनी असमर्थता ज़ाहिर करने लगे। लेकिन वो रुक नहीं रही थी, भागती रही। किसी रास्ते की खबर नहीं, न मंजिल का पता। बस भाग जाना चाहती थी। किसका डर था, किससे भाग रही थी उसे पता नहीं था। भागना है इतना जानती थी।
किसी चीज से भागना भी अप्रत्यक्ष रूप से किसी दूसरी वस्तु का तलाश ही होती है। शायद उसे भी तलाश थी किसी ऐसी वस्तु की जिसे पाकर वो भागने की वजह को भूल सके।
सूरज अपनी रौशनी समेटकर धीरे-धीरे अस्ताचल की ओर बढ़ने लगा। और अब अँधेरा अपने साम्राज्य का विस्तार करने लगा। वो लड़खड़ाते क़दमों से गिर पड़ी। सर में चोट लगी और आँखों के आगे अँधेरा फैल गया। उसके बाद कुछ याद नहीं।
जब आँख खुली तो सामने एक गेरुआ वस्त्रधारी महात्मा को खड़े पाया। उसने चारों ओर नज़र घुमायी। झोपड़ी में उन दोनों के अलावा और कोई नहीं था। सहसा वो डर गयी। उसने भयातुर नज़रों से उस सन्यासी को देखा और अपने आप में सिमटने लगी। शायद सन्यासी उसके भय को भांप गया था- ”डरो मत बेटी। भय का कोई भी कारण मन में मत लाओ। अपना पता बताओ जिससे तुम्हारे घर तक पहुंचा सकूँ।”
लड़की फफक कर रो पड़ी और बोली- “घर और इस पूरे संसार से भाग रही हूँ बाबा।”
“…क्यों बेटी, इसका कारण बता सकोगी?”
उसे साधू की शब्दों और व्यवहार में आत्मीयता दिखाई दी। भय थोड़ा कम हुआ। उसने आपबीती सुनाई।
“आपने मुझे क्यों बचा लिया बाबा! जीवन का अंत चाहती हूँ!”
सन्यासी मुस्कुराये – “संसार से तो भाग सकती हो बेटी लेकिन क्या खुद से भाग पाओगी? अपनी अंतरात्मा को कैसे समझाओगी। जीवन के अंत के बाद भी मोक्ष नहीं मिल पायेगा।”
“प्रेम की ये विह्वलता सहन से परे है बाबा। प्रेम इस तरह दुखदायी होगा नहीं सोचा था।” लड़की ने कहा।
सन्यासी कुटी से बाहर निकलते हुए बोले- “आओ मेरे साथ।”
वो उनके साथ चल दी। झोपड़ी के पीछे एक बड़े से प्रांगण में कई और छोटी-छोटी झोपड़ियाँ बनी थीं। उसने देखा तमाम रोगी और छोटे-छोटे बच्चे थे वहां और कुछ ऐसे लोग भी थे जो उनकी सेवा सुश्रुषा कर रहे थे।
सन्यासी ने कहा- “इनके साथ रहो कुछ दिन, मैं फिर मिलूंगा… फिर तुम्हारी जो इच्छा हो करना।”
लड़की उन लोगों के साथ रहने लगी। और उनकी देखभाल करने लगी। उनके दर्द को जानने समझने लगी। उसका समय अब इन दीन-दुखियों और बेसहारों के साथ कटने लगा। वो अपना दर्द भूलने लगी।
कुछ दिनों बाद सन्यासी ने उसे अपने पास बुलाया।
“अब भी जीवन का अंत करने की इच्छा है तुम्हें?” सन्यासी ने पूछा।
“नहीं बाबा… अब जीवन को एक उद्देश्य प्राप्त हो गया। इनकी सेवा करके शांति मिलती है।” लड़की ने कहा।
सन्यासी बोले- “बेटी जो तुमने किया वो प्रेम नहीं मोह था। और किसी भी व्यक्ति या वस्तु से मोह दुःख ही देता। प्रेम तो असीम शांति का अनुभव कराता है। प्रेम करना और प्रेम में होना दोनों अलग बातें हैं। प्रेम में रहो शांति मिलेगी और अपने प्रेम की अनुभूति तुम्हें विह्वल नहीं बल्कि आत्मिक आनंद देगी।”
लड़की प्रेम का अर्थ समझ चुकी थी।
एक दिन आश्रम के कुछ बच्चे बीमार हो गए। वो उनके इलाज के लिए कुछ पैसे एकत्र करने शहर की ओर गयी थी। और अब वापस आ रही थी। शाम का धुंधलापन बढ़ने लगा था। उससे थोड़ी दूरी पर एक गाड़ी रुकी। और उसमें से एक मानव आकृति निकलकर उसकी ओर बढ़ने लगी। उसकी धुंधली हो चुकी आँखों से कुछ स्पष्ट नहीं हो पा रहा था। दूरी थोड़ी और कम हुई। उसने देखा वही लम्बा, बलिष्ठ शरीर, चौड़ा माथा, हलके बड़े और बिखरे बाल, खूबसूरत-सी भूरी ऑंखें।
उसे मन ही मन असीम शांति का अनुभव हुआ।
आगंतुक के शरीर पर कीमती सूट, पैरों में महंगे जूते, कलाई पर कीमती विदेशी घड़ी और दोनों हाथों की सभी उँगलियों में बेशकीमती पत्थरों की अंगूठियां! अमीरी हर जगह से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही थी। लड़की ने मन ही मन भगवान को शुक्रिया कहा। और आगंतुक के आगे हाथ फैला दिए। आगंतुक ने उसे भिखारिन समझकर अपनी कोट की पॉकेट में हाथ डाला और कुछ नोट निकल कर लड़की की हथेलियों पर रख दिए। न देने वाले ने गिने, न लेने वाले ने। आगंतुक मुड़कर अब जाने लगा।
लड़की वहीं जमीन पर बैठ गयी। उसके जूते के नीचे की धूल को माथे से लगाया। अंदर की ओर धँस गयी आँखों के कोरों से दो बूंदें निकलकर वहीं गिर पड़ीं। उसके होठों में कम्पन हुआ- ”अपना दिया सब कुछ तो ले लिया तुमने लेकिन ये अधिकार कभी भी मुझसे नहीं ले पाओगे!”