‘परिवर्तन प्रकृति का नियम है’
यह पढ़ते-पढ़ाते वक़्त
मैंने पूरी शिद्दत के साथ अपने रिश्तों में की
स्थिरता की कामना
प्रकृति हर असहज कार्य भी पूरी सहजता के साथ करती है
परिवर्तन, जैसे
हौले-हौले किसी पहाड़ की चोटी से फिसलते जाना
डूबना-उतरना
अपनी ही संवेदनाओं के समुद्र में
मैं कदली में कपूर और सीप में मोती-सा ठहर जाना चाहती हूँ
एक तितली मेरे कंधे पर आकर बैठ गई
और वक़्त मुट्ठी में क़ैद परिंदे-सा फड़फड़ाने लगा
मैं तितली के रंगों में खो गई हूँ
नीले आसमान पर गुलाबी धुआँ
रात के दो बजकर बीस मिनट पर कुछ इस तरह गुज़रता है कि
मुझे आसमान में हर तरफ़ तितलियों के अक्स नज़र आते हैं
धुएँ के उस पार
एक तारा अपनी सबसे मद्धम रोशनी के साथ टिमटिमाता है
और ठीक इसी समय वह मुझसे कहता है,
“इस पल को जी लो, इससे पहले कि
यह वक़्त भी बीत जाए!”
रात के तीसरे प्रहर उसकी बातें राग मालकौश-सी हैं
मुझे पलों में जीने की इच्छा
किसी मृत्यु कामना-सी प्रतीत होती है
पूरी शिद्दत के साथ जिया गया एक पल
तमाम उम्र की बेचैनी और उनींदी आँखों का सबब बनता है
बीतते पलों को रोकने की कला को वास्तुकला से बदल दिया जाना चाहिए
गतिशीलता के देवता के समक्ष
मैं स्थिरता की प्रार्थना करती हूँ
वक़्त बीत रहा है…
शहरयार की नज़्म 'आख़िरी दुआ'