‘Apmaan’, a story by Kamla Chaudhary

“भैया, क्या खुर्जा जा रहे हो?”

“हूँ, दशहरे की छुट्टियाँ मौसी ही के पास व्यतीत करूंगा। उन्हें मुझसे बहुत शिकायत है।”

“भैया, मैं भी तो बहुत दिनों से मौसी के घर नहीं गयी। मुझे भी ले चलो।”

“माताजी आज्ञा दे दें, तो अवश्य चलो।”

मीरा माताजी से आज्ञा लेने भाग गयी, और कुछ ही मिनट में वापस आकर बोली — “माताजी ने कह दिया, चली जा।”

“तो फिर सामान ठीक कर लो।”

“अच्छा।”

मीरा प्रसन्न होकर जाने का उपक्रम करने लगी।

उसे रोककर सुधीर ने कहा — “मेरे एक मित्र भी साथ चल रहे हैं।”

विस्मय-भरे स्वर में मीरा बोली — “तो क्या हुआ?”

सुधीर हँस पड़ा। “होगा क्या? तेरे कारण मुँह में टांके लगाकर बैठना पड़ेगा।”

“ओह! बुलन्दशहर से खुर्जा तक बहुत लम्बा सफ़र है न! मुझे लेडीज़ कम्पार्टमेंट में बिठा देना। मैं तुम्हारे बीच में खलल नहीं डालूंगी।”

“अच्छा, जा, अपना सामान बांध।”

मीरा स्वयं ही लेडीज़ कम्पार्टमेंट में बैठ गयी। सुधीर अपने मित्र के साथ बराबर वाले डब्बे में बैठकर गप-शप करने लगा। आश्विन का मास था। दिन-भर की तीव्र धूप के पश्चात् सन्ध्या अत्यन्त सुहावनी और कुछ शीतल हो उठी थी। मीरा की मृग-शावक-जैसी सुन्दर आँखें प्रकृति का मनोरम सौन्दर्य अवलोकन करने में तल्लीन हो गयीं। खिड़की से सिर निकालकर वह एकटक सामने से गुज़रने वाले दृश्यों को देखने लगी। हरे-हरे खेत, जंगल, नदी, तालाब — वातावरण में अत्यधिक आकर्षण भर रहे थे। गाड़ी पूर्ण गति से चली जा रही थी।

मीरा को मालूम न था कि जिस प्रकार वह इस समय सब कुछ भूलकर प्रकृति के सौन्दर्य में तन्मय थी, उसी प्रकार बराबर के डब्बे में खिड़की के बाहर सिर निकाले, कोई उसके रूप-वैभव पर आँखें गड़ाये, मुग्ध होकर अपने आस-पास के वातावरण और अपने को सर्वथा भूल गया था। सहसा उसे ज्ञान हुआ इस बात का। लजाकर मीरा ने अपनी दृष्टि फेरते हुए भी देखा कि दो सुन्दर बड़ी-बड़ी आँखें अब भी निर्निमेष दृष्टि से उसे निहारे ही जा रही थीं। उस मुख पर न पश्चात्ताप की कोई रेखा थी, न लज्जा की, बल्कि मीरा के लजा जाने से उसके अधर किंचित् मुस्करा उठे। मीरा को उस मुस्कराहट में शरारत खेलती जान पड़ी। यह तो उसके रूप-लावण्य से खिलवाड़ था। वह भले ही सुन्दर हो, किन्तु उस सुन्दर रूप के अन्दर छिपा हुआ हृदय मीरा को काले भौंरे ही के समान असुन्दर और क्रूर जान पड़ा।

“किसी मद-भरे, नव विकसित पुष्प को देखकर लोभ संवरण न कर मुँह मार देना, और फिर गुन-गुन करके अपनी विजय पर गर्वयुक्त स्वर से गुंजारना! इसी प्रकार की मनोवृत्ति कदाचित् इस स्वरूपवान् नवयुवक की भी है। उसे अधिकार क्या है, इस प्रकार मुझसे अपना मनोरंजन करने का?”

लज्जा और अपमान की उत्तेजना के फलस्वरूप उसका गौर मुख रक्तवर्ण हो गया। क्रोध से तिलमिलाकर उसने चाहा कि चेन खींचकर ट्रेन रोक दे। क्षणमात्र में उसकी मनोदशा ने दृढ़ता और आत्माभिमान प्राप्त कर लिया, जिसके फलस्वरूप वह अपना मुँह पहले से भी अधिक बाहर करके अटल होकर बैठ गयी, ताकि नवयुवक महोदय भली प्रकार आँखें गड़ा-गड़ाकर उसे देख सकें। उसके अधरों पर गर्व तथा व्यंग्य-मिश्रित मुस्कराहट व्यक्त हो गयी।

मीरा के इस भाव और मुस्कराहट ने उस नवयुवक के मन पर दूसरे ही प्रकार का प्रभाव डाला। उसके मन की प्रसन्नता और उत्साह को प्रोत्साहन मिला। अतएव वह उसी प्रकार निर्निमेष दृष्टि से ताकता रहा। अपनी आँखें सामने के दृश्यों में गड़ाये निश्चेष्ट बैठी रही मीरा। नवयुवक को वह दृश्य अपूर्व जान पड़ रहा था। और उसकी चाहना थी — अनन्त काल तक गाड़ी चलती रहे और वह उसी प्रकार उस सौन्दर्य की प्रतिमा पर आँखें गड़ाये रहे।

किन्तु गाड़ी खुर्जा जंक्शन पर खड़ी हो गयी और एक बारगी नवयुवक की आँखों का कार्य रुक गया। हृदय की तीव्र गति में फिर भी कोई अन्तर नहीं आया। उसे एक ठेस लगी, उस ठेस की पीड़ा समस्त अन्तस्तल में समा गयी। गहरी सांस खींचकर, अटैची हाथ में लेकर नवयुवक तत्परता से उतर पड़ा। अपनी अनुराग भरी-दृष्टि एक बार फिर उस ओर दौड़ायी। दृष्टियाँ मिल न सकीं। इस समय यदि मीरा देखती, तो जान पाती कि उन आँखों में केवल पिपासा ही नहीं, उसके रूप पर श्रद्धा, आस्था और वास्तविकता की आसक्ति भी थी।

मीरा अब भी उसी प्रकार निश्चल बैठी थी, मानो संगमरमर की मूर्ति हो। उसने लक्ष्य किया — भाई और भाई के मित्र गाड़ी से उतरकर सामान उतार रहे हैं। फिर भी वह न हिली, न डुली और न उसने उतरने का उपक्रम ही किया। उसी समय बराल में लाल, हरी झण्डियाँ दबाये गार्ड उधर से निकला। हठात् मीरा के मन में चेतना जाग्रत हुई। विद्युत-सी चमककर उसने गार्ड को पुकारकर हाथ से ठहरने का संकेत किया। गार्ड के खड़े होते ही कितने ही लोग कौतूहलवश उधर देखने लगे।

मीरा ने गम्भीरतापूर्वक रास्ते की पूरी कथा सुना दी और उंगली से नवयुवक की ओर संकेत कर दिया। किसी अप्रिय घटना का अनुमान करके सुधीर भागकर मीरा के समीप आया। भाई को सम्मुख देख मीरा अपने पर संयम न रख सकी। अपमान की वेदना आँखों से छलछला आयी। युवक इतनी देर बाद जैसे अब होश में आया हो। मीरा के मुख पर आंसू और उसे अपनी ओर इशारा करते देखकर उसे अपनी भूल का स्मरण हो आया। प्रकृतिस्थ होकर उसने सोचा — “वास्तव में, आज मुझसे अपराध बन पड़ा है। मेरा यह कृत्य मुझ-जैसे सुसंस्कृत मनुष्य के लिए सर्वथा अनुचित है।”

उसका हृदय धक-धक करने लगा। गार्ड और सुधीर को अपनी ओर आवेश में आते देख नवयुवक पुल की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते गरदन नीची करके खड़ा रहा और इस प्रकार जैसे स्वतः ही उसने अपने को अपराधी घोषित कर दिया। गार्ड भद्र पुरुष था। एक सभ्य परिवार की नवयुवती के साथ किसी युवक का यह गुण्डों-जैसा व्यवहार उसके मन को सर्वथा अनुचित ही नहीं, अपमानजनक भी प्रतीत हुआ और उसने उस युवक को यथेष्ट लज्जित करके दण्ड देने की बात सोची, और सुधीर ने क्रोध से तिलमिलाते हुए सोचा — यदि गार्ड ने कुछ उचित दण्ड की व्यवस्था न की और इन हज़रत ने झूठ बोलकर चीं-चपड़ करने की चेष्टा की, तो वह अपने बलिष्ठ हाथों से उसकी भली प्रकार मरम्मत करेगा।

सुधीर का मित्र भी कुछ इसी प्रकार की बातें सोचता हुआ पीछे-पीछे चला जा रहा था। किन्तु समीप पहुंचकर उस नवयुवक के व्यक्तित्व का कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन वीरों के हौंसले ठण्डे पड़ गये। गार्ड के एक ही बार पूछने पर नवयुवक ने आँखें नीची किये हुए अपना अपराध स्वीकार कर लिया।

तीनों व्यक्तियों के मस्तिष्क में एक-सा ही विचार उत्पन्न हुआ। यदि वह चाहता, तो इंकार कर सकता था। मीरा के पास अपराध सिद्ध करने के लिए एक भी उपयुक्त प्रमाण नहीं था। वह नवयुवक चतुर या ऐसे ही कृत्यों का अभ्यस्त होता, तो अवश्य ही अनेक बनावटी बातें कर उलटे मीरा ही को दोषी ठहरा सकता था, किन्तु उसने ऐसा कुछ न कहकर सच्ची बात स्वीकार कर ली। गार्ड के क्रोध में शिथिलता आने लगी। मीरा के मुख से उक्त घटना का उल्लेख सुनकर उसने समझा था कि वह युवक गया-गुज़रा और आवारा होगा, किन्तु अब उसकी आकृति, अपराध-स्वीकृति का ढंग और मुख पर पश्चात्ताप-मिश्रित लज्जा की रेखाएं देखकर उसकी धारणा बदल गयी। यह कोई भले घर का लड़का है। कॉलेज का छात्र मालूम होता है। आजकल कॉलेज के लड़के रोमांस की खोज में दीवाने रहते हैं। यह उसी मनोवृत्ति का प्रभाव है। गार्ड ने नोटबुक जेब से निकालते हुए प्रश्न किया — “महाशय, आपका शुभ नाम?”

“भारतभूषण।” युवक और भी लज्जा से सराबोर हो गया। आँखें पृथ्वी में गड़ गयीं।

अन्दर से आवाज़ उठी — “धिक्कार है इस नाम को!”

गार्ड ने दूसरा प्रश्न किया — “कहाँ के बाशिन्दे हैं?”

“मैं मेरठ कॉलेज में फोर्थ इयर का स्टूडेण्ट हूँ।”

“आपके पिता का नाम और पूरा पता?”

अपने स्वर में मधुरता और विनय के भाव भरकर युवक ने उत्तर दिया — “कार्रवाई करने के लिए मेरा इतना ही पता यथेष्ट है। पिताजी का नाम न पूछिये। मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूँ।”

गार्ड ने मुस्कराकर कहा — “क्या आप अपने इस अपराध के विषय में कुछ बतलाने की कृपा करेंगे?”

कुछ भर्रायी आवाज़ में उत्तर मिला — “इसके सम्बन्ध में मैं कुछ नहीं कह सकूंगा।”

गार्ड ने देखा — युवक की आँखें सजल हो गयीं। साथ ही उसने यह भी लक्ष्य किया कि बहुत-सी आँखें कौतूहलवश उन लोगों की ओर देख रही थीं और सुधीर और रमेश के समीप होने के कारण वह बहुत ही लज्जित हो रहा था और ठीक तरह से कुछ कह नहीं पा रहा था। अतः गार्ड ने सुधीर से कहा — “आप व्यर्थ अपना समय क्यों नष्ट करते हैं? अपनी बहिन को लेकर चलिये। बेचारी परेशान हो रही होगी। मैं इनसे बात करके जैसा भी उचित समझूंगा, करूंगा।”

सुधीर ने अनुभव किया कि गार्ड की सलाह बिल्कुल ठीक है। स्टेशन पर खड़े हुए लोग उस नवयुवक के साथ ही मीरा को भी कौतूहलपूर्ण दृष्टि से ताक रहे थे और मीरा लज्जा के मारे सिकुड़ी जा रही थी। इसलिए यहाँ अधिक रुकना बुद्धिमत्ता की बात नहीं थी। कुली से सामान उठवाकर वह मीरा के साथ पुल की सीढ़ियों पर चढ़ने लगा।

दूर खड़ी मीरा अपने अपराधी के मुख पर आने-जाने वाले भावों को भली प्रकार लक्ष्य कर रही थी। वह सोच में पड़ गयी। उसके मन को लगा, जैसे वह अपराध अनजाने में ही हो गया था। मीरा का मन क्षण-भर में ही मान-अपमान सब कुछ भूलकर उस युवक के प्रति दयार्द हो उठा। वह पछताने लगी कि व्यर्थ ही उसने गार्ड से कहकर उस बेचारे को इतने मनुष्यों के सामने लज्जित किया।

“न जाने कैसे इनसे अनजाने ही में यह उद्दण्डता हो गयी? वैसे ये ऐसी हरकतों के अभ्यस्त नहीं जान पड़ते।”

करुणा और भावुकता के वशीभूत होकर मीरा अपने ही को कोसने लगी — वह क्यों खिड़की से सिर निकाल कर बैठी? जैसे उसने ही उस युवक को छेड़-छाड़ करने की प्रवृत्ति प्रदान की हो। आत्मग्लानि बेचारे को न जाने कितना दु:ख देगी? और गार्ड न जाने कैसे दण्ड की व्यवस्था करे? तांगे तक पहुंचते-पहुंचते अपने मनोभावों द्वारा परास्त मीरा विचलित हो उठी।

“भैया, मेरा रेशमी रुमाल पुल पर गिर गया। तुम सामान रखाओ। मैं देखकर आती हूँ।” और मीरा अकेले ही जल्दी-जल्दी पैर रखती हुई पुल की सीढ़ियों पर चढ़ने लगी।

उधर वह नवयुवक धीरे-धीरे शिथिल-सा पुल की सीढ़ियों पर उतर रहा था। मीरा ठिठक गयी। दोनों की दृष्टियाँ फिर मिल गयीं। तुरन्त नवयुवक ने आँखें नीची कर लीं। मीरा ने समझा इस पल-मात्र के दृष्टि-सम्मिलन से अपने मन का भाव तनिक भी नहीं प्रकट हो सका है। हाँफती हुई वह फिर उसी गति से भागने सी-लगी। गार्ड हरी झण्डी दिखाकर गाड़ी छोड़ने का सिगनल दे रहा था। उसी समय दौड़ी हुई मीरा उसके समीप पहुंच गयी और निस्संकोच भाव से उससे कहा — “क्षमा करें, मैं जानना चाहती हूँ कि उस मामले में आपने क्या निश्चय किया?”

गार्ड ने कहा — “आप दुखी न हों। मैं स्वयं ही अनुभव करता हूँ कि वह नवयुवक कैसा ही सज्जन क्यों न हो, उसने वास्तव में आपका अपमान किया है। मैंने सोचा है कि मेरठ कॉलेज के प्रिंसिपल को लिख दें। उसे अपने किये का फल मिल जायेगा।”

और गार्ड अपने डब्बे में बैठने के लिए तेज़ी से चलने लगा। मीरा भी जल्दी-जल्दी पैर रखती हुई गार्ड के साथ भागने लगी।

“मैंने उन्हें क्षमा कर दिया है। वह बहुत ज़्यादा लज्जित हुए हैं। मैं समझती हूँ कि यही दण्ड उनके लिए पर्याप्त है। कृपया आप प्रिंसिपल को न लिखें। उन्होंने कॉलेज से निकाल दिया, तो बेचारे का जीवन नष्ट हो जायेगा।”

कहीं गार्ड गाड़ी में चढ़ न जाये, इसलिए हड़बड़ाहट में मीरा ने उसकी बांह पकड़ ली। मजबूरन गार्ड को तनिक ठहराने का संकेत करना पड़ा। रुककर उसने जेब से नोटबुक निकाली और उसका एक पन्ना फाड़कर मीरा के हाथ में देकर कहा — “जैसी आपकी इच्छा।”

वह मुस्कराकर ट्रेन पर सवार हो गया। उस मुस्कराहट से लजाकर मीरा ने अपना मुख नीचा कर लिया। उससे हाथ उठाकर नमस्ते भी न करते बना।

परचा हाथ में दबाये हुए, चारों ओर देखती हुई, वह पुल की ओर भागने लगी। किसी परिचित मनुष्य ने या भाई ने आकर उसकी वह दशा तो नहीं देख ली? किसी को न देखकर उसने सन्तोष की सांस ली। फिर अपने को प्रकृतिस्थ करने की चेष्टा करती हुई धीरे-धीरे चलने लगी। प्लेटफ़ार्म के दरवाज़े पर सुधीर से भेंट हुई। वह मीरा की तलाश में आ रहा था — “मिल गया तेरा रुमाल?”

“हाँ, हाँ मिल गया, भैया।”

“इतनी हाँफ क्यों रही है? मालूम होता है, बहुत बढ़िया रुमाल है?”

मुस्कराकर, मीरा ने अपने हाथ में दबा हुआ नोटबुक का पन्ना और भी दृढ़ता से दाब कर, कहा — “भागती हुई तो गयी-आयी हूँ। इसलिए हाँफ गयी।”

और वह तांगे पर बैठ गयी।

सुधीर के मित्र को अन्यत्र जाना था। अत: वह दूसरे तांगे में बैठकर कुछ आगे चला गया। सुधीर ने ध्यान से देखा — मीरा के मुख पर उस घटना के फलस्वरूप अब दु:ख या पीड़ा का कोई चिह्न शेष नहीं था। शान्ति की सांस लेकर उसने कहा — “देख मीरा, वहाँ चलकर रेलवाली घटना का किसी से ज़िक्र न करना।”

“अच्छा।”

उसका मन स्वतः ही चाह रहा था कि वह बात यहीं समाप्त हो जाये और घर में किसी और को कुछ मालूम न हो सके।

मौसी के घर पहुंचकर मीरा ने दिन तो किसी प्रकार हंसी-खेल में बिता दिया, किन्तु रात में उसे नींद आना कठिन हो गया। रेल का वह दृश्य चेष्टा करने पर भी किसी प्रकार आँखों के सामने से ओझल नहीं होता था। वह घटना व्यापक रूप से उसकी चिन्ता का कारण बन गयी थी और उसमें वह अपना ही दोष अधिक देख रही थी। नवयुवक के मन की हार पर क्रोध करके और अपमान अनुभव करके उसने अपने मन को उससे भी अधिक पराजित कर लिया था। उचित तो यह था कि हंसकर उसके उस कृत्य की उपेक्षा करती और उस बात को वहीं समाप्त कर देती, किन्तु उसने स्वतः उसे महत्त्व दिया।

सोचते-सोचते मीरा ने अनुभव किया, उसकी आँखों से आंसू बह रहे हैं। एक कार्य तो उसने साहस और सराहना का अवश्य किया कि गार्ड से अनुरोध करके उसके द्वारा होने वाली कार्यवाही को समाप्त किया, किन्तु अभियुक्त को क्या मालूम कि उसके ऊपर से अभियोग हटा लिया गया? कितना पीड़ित, कितना दुःखित हो रहा होगा वह! कहीं ऐसा न हो कि अपमान और लांछना से बचने के लिए वह अपने अनिष्ट का विचार करने लगे। हे भगवान्! मुझसे कैसी भारी भूल हुई! कहीं उसका कुछ अहित न हो जाये, उसके प्राणों पर न बन आये। यदि कुछ ऐसी बात हो गयी, तो मुझे घोर पातक लगेगा!

मीरा अब शय्या पर लेटी न रह सकी। कुछ सोचकर धीरे से उठकर कमरे में चली गयी और अन्दर से दरवाज़ा बन्द करके लैम्प की बत्ती तेज़ कर पत्र लिखने लगी। उस अनजान नवयुवक को लिखे गये पत्र में उसने सारी बातें साफ़-साफ़ लिख दीं और विनयपूर्ण शब्दों में क्षमा याचना की। अब चिन्ता हुई — यह पत्र उसके पास कैसे पहुंचेगा? गार्ड से मिले हुए नोटबुक के पन्ने में मेरठ कॉलेज का पता दिया हुआ था। कॉलेज के पते से पत्र भेजना तो ठीक न होगा। लाचार मीरा पत्र तकिये के नीचे रखकर बिछौने पर लेट गयी। वह खुर्जा क्यों आया है और कहाँ ठहरा है? प्रातः से सन्ध्या तक मेरठ जाने वाली सभी गाड़ियाँ किसी-न-किसी बहाने से देखने की चेष्टा करूंगी। सम्भव है, उससे भेंट हो जाये।

सवेरे उसने अपनी मौसेरी बहिन सविता से कहा — “चल सविता, कहीं घूम आयें। मौसम बड़ा सुहावना लग रहा है।”

सविता से उसकी खूब पटती थी। वह तुरन्त राज़ी हो गयी। घर के छोटे नौकर रामू को साथ लेकर दोनों बाहर सड़क पर आ गयीं। मीरा की इच्छानुसार स्टेशन तक घूमने जाने का निश्चय हुआ। रामू के बाल-हृदय को इस समय सबसे अधिक हर्ष हो रहा था। सैर करने से अधिक झाड़ू-बुहारू से छुट्टी पा जाने का विचार उसे आनन्दित कर रहा था। कहने लगा — “बीबीजी, पीछे वाले रास्ते से चलो, तो कुछ घूमना भी हो सकेगा। रेल की पटरी पार करके स्टेशन पहुंच जायेंगे।”

सविता ने कहा — “हाँ बहिन, रामू ठीक कहता है। सीधे रास्ते से तो स्टेशन बहुत ही समीप है।”

रामू की इच्छा पूर्ण हुई। तीनों पीछे के रास्ते से घूमते हुए स्टेशन पहुंचे। एक कुली से बात करके मेरठ जाने वाली गाड़ियों का समय मालूम कर लिया। उस समय भी मेरठ जाने वाली एक गाड़ी तैयार थी। मीरा ने प्लेटफ़ार्म पर घूमकर भली-भांति मुसाफ़िरों को देखा। किन्तु वह कहीं दिखाई न दिया। निराश होकर सन्ध्या की गाड़ी देखने का निश्चय करके वह घर लौट आयी।

उस दिन मौसी से आज्ञा लेकर वे लोग लगभग सारा दिन घर से बाहर ही घूमते-फिरते रहे। मीरा की आँखें सावधानी से किसी को खोजती रहीं। सन्ध्या के समय जल-पान के पश्चात सुधीर अपने मित्रों के साथ घूमने चला गया। सविता और मीरा रामू को साथ लेकर स्टेशन उसी रास्ते से चल पड़ीं।

2

भारतभूषण मुरादाबाद में रहने वाले एक रिटायर्ड जज का इकलौता पुत्र था। जज साहब ने उसे एक कॉनवेंट में शिक्षा दिलायी और अब वह फ़ोर्थ इयर में आर्ट्स का विद्यार्थी था। उसकी बुद्धि बहुत तीव्र थी और वह सदैव अपनी कक्षा में प्रथम आता था। वह शालीन, मिष्टभाषी, भावुक, सुसंस्कृत, सौन्दर्योपासक, काव्य-प्रेमी था। अपने एक सम्बन्धी के पुत्र के यज्ञोपवीत में सम्मिलित होने के लिए खुर्जा जा रहा था। रास्ते में प्रकृति के उस मनोमुग्धकारी वातावरण ने उसके हृदय में काव्य-प्रेरणा उत्पन्न की और वह कविता का विषय सोचने लगा।

उसी समय उसकी दृष्टि मीरा के सौन्दर्य से जा उलझी। हृदय का अणु-अणु अनुराग से भर गया। मन:प्रवृत्ति सब कुछ भूलकर मीरा के सौन्दर्य में निमग्न हो गयी। भारतभूषण के जीवन में किसी नारी के सौन्दर्य में आकर्षण पाने का आज यह पहला ही अवसर था। बाल्यकाल से अब तक वह स्त्रियों के सम्पर्क में रहा था और उसके चारों ओर का वातावरण आधुनिक सभ्यता से परिपूर्ण था। इस कारण आधुनिक समाज की कितनी ही युवतियों से उसका परिचय था तथा बहुत-सी साथ पढ़ने के कारण भी उसके सम्पर्क में आ गयी थीं। भारतभूषण के मन में उन लोगों के प्रति कभी अनुराग या वासना के भाव जाग्रत नहीं हुए। प्रारम्भ ही से उसके वातावरण में स्त्री-पुरुष के भेद-भाव को महत्त्व नहीं दिया गया। यही कारण था कि उसे सहशिक्षा या मैत्री में कभी जटिलता, अस्वाभाविकता आदि का अनुभव नहीं हुआ।

उसके घनिष्ठ मित्रों में कई लड़के भी थे और लड़कियाँ भी थीं। उन लोगों के प्रति समानता का भाव रखने में उसे कभी कोई अड़चन और उलझन नहीं होती थी। मीरा के प्रति भी उसके मन में कुवासना उत्पन्न नहीं हुई थी और न उसके सौन्दर्य से मनोरंजन करने की प्रवृत्ति ही। किसी दैवी शक्ति के वशीभूत हो जाने के कारण ही वह उसके प्रति आकृष्ट हुआ था।

उस घटना के पश्चात् अब तक उसे एक क्षण को भी शान्ति प्राप्त नहीं हुई थी। वह सारी रात सो भी न सका। अत्यन्त कठिनाई से उसने इतना समय व्यतीत किया। उत्सव से किसी प्रकार छुटकारा पाकर मेरठ जाने वाली गाड़ी की प्रतीक्षा में चुपचाप गरदन झुकाये, चिन्ता में निमग्न वह पुल के नीचे अन्य मुसाफ़िरों से अलग बैठा था। सम्बन्धी के घर की भीड़-भाड़ उसे बहुत ही अरुचिकर प्रतीत हुई थी। एकान्त के लिए उसका मन छटपटा रहा था। इसी कारण उन लोगों से विदा होकर वह गाड़ी के समय से बहुत पहले ही स्टेशन आकर प्लेटफ़ार्म पर बैठ गया था। उसका कार्यक्रम यहाँ से लौटकर मेरठ में होने वाले टैनिस मैच में भाग लेने और फिर मुरादाबाद जाने का था, किन्तु कल से उसके मन से घर जाने का हर्ष और उत्साह लोप-सा हो गया था।

रेल की घटना के उपरान्त उसके हृदय में भारी हलचल मची हुई थी। गार्ड ने यदि प्रिंसिपल को इस घटना के सम्बन्ध में लिख दिया, तो उनके सम्मुख लज्जित होना पड़ेगा। सबसे अधिक दु:ख उसे इस बात का था कि उसके चरित्र की ओर से प्रिंसिपल के मन में अब पहले की-सी धारणा नहीं रह जायेगी। उस घटना का सच्चा विवरण शब्दों द्वारा वह उन्हें कैसे बता सकेगा? और कहीं पिता के कानों तक यह बात पहुंच गयी, तो उन्हें कितनी व्यथा होगी! मन की यह हलचल उसे बहुत ही व्याग्र बना रही थी। निराशा से हृदय भरा जा रहा था। वह कुछ निश्चय नहीं कर पा रहा था कि आने वाली विपत्ति के लिए उसे क्या उपाय करना चाहिए।

भारतभूषण के हृदय में वेदना का स्रोत-सा उमड़ने लगा। उसे जान पड़ा, भविष्य अन्धकारपूर्ण है, परिस्थितियाँ विपरीत हैं। गाड़ी आने का धड़-धड़ शब्द कानों में पड़ा। हृदय की गति तीव्र हो गयी। उसी समय हाथ पर हलके स्पर्श का आभास पाकर वह चौंक उठा। ध्यान भंग हो गया। कल्पना की रेखाएं विलीन हो गयीं। उसने सचेत होकर देखा — एक लड़का उसके हाथ में पत्र देकर भागा जा रहा था।

उड़ती दृष्टि हाथ के लिफ़ाफ़े पर डाली। सुन्दर अक्षरों में उसका नाम लिखा हुआ था। मन सिहर उठा। हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी। किन्तु लिफ़ाफ़ा खोलकर देखने का अवसर नहीं था। पत्र-वाहक कहीं आँखों से ओझल न हो जाये! दृष्टि उसके साथ भागने लगी और उस पत्थर तक पहुंचकर रुक गयी, जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में ‘खुर्जा जंक्शन’ लिखा हुआ था। वह अत्यधिक विस्मित हो उठा — पत्थर के पीछे वायु में उड़ती हुई साड़ियों के पल्ले देखकर।

भारतभूषण मन्त्र-मुग्ध-सा उसी ओर भागने लगा। समीप पहुंचते ही वह सहसा रुक गया। स्लेटी रंग की साड़ी के आँचल को सम्भालने की चेष्टा करती हुई, गदरन घुमा कर अनुरागपूर्ण दृष्टि से ताकती हुई, पत्र-प्रेमिका मुस्करा पड़ी। वह दृष्टि भारतभूषण के लिए नवीन थी, किन्तु आँखें परिचित थीं।

चकाचौंध के मिटते ही उसने चाहा, इसे पीछे-पीछे भागने की कैफ़ियत दे दे, किन्तु वाणी ने साथ न दिया। हृदय आनन्द से भर गया। दृष्टि ने जहाँ तक सहायता की, वह देखता रहा उन सुन्दर पैरों की गति। जब तक वे दिखाई देते रहे, तब तक वह देखता रहा। फिर एक दीर्घ निश्वास खींचकर वह पत्र पढ़ने लगा।

सहसा गाड़ी की ध्वनि ने उसे फिर चौंका दिया। आँखें उठाकर उसने देखा — गाड़ी जा रही थी। पत्र दोबारा पढ़ने की इच्छा से वह पुल के नीचे जाकर बैठ गया।

3

सुधीर ने ऑफ़िस से शीघ्र ही छुट्टी पा जाने की बहुत चेष्टा की, किन्तु सफल न हुआ। वह मन-ही-मन असन्तुष्ट हुआ (उन्होंने विवाह की इतने निकट सूचना क्यों दी?)। ठीक बरात की अगवानी के समय वह घर पहुंच सका। वर के स्वागत के लिए सब लोग द्वार पर उपस्थित थे। कौतूहलवश सुधीर कुछ आगे बढ़कर ध्यान से देखने लगा। मोटर में सेहरे की लड़ियाँ हाथ में उठाये मन्द-मन्द मुस्कराते हुए स्वरूपवान् नौशे को देखकर उसकी प्रसन्नता लोप हो गयी। मुख पर अन्धकार और हृदय पर विषाद छा गया। तिलमिलाकर वह घर के भीतर भागा। वधू के वेश में वस्त्र-आभूषणों से सुसज्जित, जयमाल डालने की प्रतीक्षा में खड़ी हुई मीरा को हाथ पकड़कर घसीटता हुआ वह कमरे में ले गया। मीरा की एक सहेली ने चकित होकर कहा — “क्या बात है सुधीर भैया?”

“मीरा से एक ज़रूरी बात कहनी है!”

भाई की घबराहट और उसके मुख पर क्रोध के चिह्न देखकर मीरा को कुछ पूछने का साहस नहीं हुआ। वह घसिटती-सी चली गयी और कमरे में पहुंचकर प्रश्नसूचक दृष्टि से भाई का मुख देखने लगी। हाँफते हुए सुधीर ने कहा — “यह तो वही लड़का है मीरा! पिताजी ने तो लिखा था कि उन्होंने तुम्हारी इच्छानुसार विवाह ठीक किया है?”

“हाँ!” मीरा ने गरदन हिलाकर धीरे से कहा और लजाकर आँखें नीची कर लीं।

सुधीर आश्चर्य से उसके खिले हुए चेहरे की ओर देखता रह गया।

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