‘Appeal’, a poem by Rahul Boyal
जज साहब!
क्या एक कवि अपनी कविता कह देने के बाद
उसे वापस ले सकता है?
यूँ तो मैं जानता हूँ कि
वाणी तरकश से निकला तीर है
कभी लौटता नहीं।
यदि ऐसा सम्भव हो तो एक गुज़ारिश है मेरी
मैं अपनी तमाम प्रेम कविताएँ रद्द करवाना चाहता हूँ।
क्या मेरी यह अपील स्वीकार्य है?
मैंने जो शब्द प्रेम में कहे,
उन शब्दों में मेरी ज़ुबान की कोई भूमिका न थी
वो सब आत्मा ने रचे थे
जिन जगहों पर मैंने वो पढ़ीं,
वहाँ मैं कभी था ही नहीं
वहाँ मेरे अहसास भ्रमण करते थे
जिसके लिए ये कविताएँ गुनगुनायी गयीं
उसको इसका आज तक इल्म नहीं
यदि है भी… तो भी
उसकी तरफ़ से इनका मोल सिफ़र है।
मेरी प्रेम कविताओं को रद्द कर दीजिए जज साहब!
यह केवल मेरी अपील न जानिए जज साहब!
इसे प्रेम में तबाह हुए
तमाम प्रेमियों की गुहार समझा जाए।
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