‘Bachche’, a poem by Harshita Panchariya

मिट्टी की प्रयोगशाला से होते है बच्चे,
भाँति-भाँति के रंग,
भाँति-भाँति के ढंग
जितना सरल दिखता है गढ़ना
उतना ही विषम होता है ढालना।
ढालना चाहते हैं कि बना सकें,
उस घड़े के मानिंद,
जो अग्नि में तपकर भी,
समेट ले शीतलता मन-वचन में।
पर फिर हावी होने लगती है
लालसाएँ,
कि परिपूर्ण रहे घड़ा कामनाओं से
और फिर ईश्वर की उस अनुपम
कृति को,
हम स्वयं कृत्रिमता में नष्ट करने का
प्रयास करते हैं,
और भूल जाते है कि
मौलिकता, निश्छलता और धैर्यता
अमूल्य है।

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