मैं बहुत दिनों से, बहुत दिनों से
बहुत-बहुत-सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना
और कि साथ यों साथ-साथ
फिर बहना, बहना, बहना
मेघों की आवाज़ों से
कुहरे की भाषाओं से
रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना-कोना
है बोल रहा धरती से
जी खोल रहा धरती से
त्यों चाह रहा कहना
उपमा, संकेतों से
रूपक से, मौन प्रतीकों से
मैं बहुत दिनों से बहुत-बहुत-सी बातें
तुमसे चाह रहा था कहना!
जैसे मैदानों को आसमान
कुहरे की, मेघों की भाषा त्याग—
बिचारा आसमान कुछ
रूप बदलकर, रंग बदलकर कहे।
मुक्तिबोध की कविता 'पता नहीं'