रात होती है
तो बाज़ार वाली गली के
चौराहे पर
गर्म होता है
जिस्म का बाज़ार

अचानक उस दिन
मेरी नज़र में
आ गयी औरतें

बस शर्म का फ़र्क़ था

मैं सजी थी बहुत सारे अलंकारों से
वो मात्र शरीर को ही अलंकार बनाती दिखी

शर्म का पल्लू सम्भालते-सम्भालते उम्र नकल गयी

वो खुली थी
एक किताब की तरह
बुकस्टॉल पर खरीदकर
कोई भी पढ़ ले उसे

मैं बन्द
अन्दर और बाहर से भी
अन्दर ही अन्दर
गुमनाम किताब
किसी एक के लिए बनी
उसे पढ़ना नहीं आता
अनपढ़ सा है वो

किताब खोली ना अबतक
मुखपृष्ठ को ताकता वो
किताब को अपने शीशे के
आशीयाने में सजा बैठा है
अच्छा होता
रात कुछ पन्ने खोलता वो
बेबसी से बेबस
होती किताब बेबसी से देखती रहती है
रात को वो बाज़ार वाली गली

और
मन ही मन
वो एक रात के लिए बनना
चाहती खुली किताब
कोई मुसाफ़िर की नज़र पढ़े और बन्द इस किताब
का पन्ना ना पन्ना पढ़े
मोहब्बत से!

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