कुंदन लाल सहगल का जन्म जम्मू के निकट एक छोटे से गाँव में 11 अप्रैल, 1904 को हुआ। उनके पिता श्री अमरचंद सहगल कश्मीर के महाराजा प्रताप सिंह के दरबार में पदाधिकारी थे। माँ श्रीमती कैसर कौर अच्छी गायिका थीं। माँ की प्रेरणा और पिता के प्रयास से कुंदन का प्रथम गायन सन् 1916 में महाराजा के दरबार में हुआ। बारह वर्ष के इस बालक ने राजदरबार में मीरा के भक्तिपद को इस आर्त्त भाव से कुशलतापूर्वक गाया कि महाराज ने प्रसन्न होकर इनाम तो दिया ही, साथ ही यह भविष्यवाणी भी की कि यह बालक एक दिन भारत का महान गायक बन देश का मान-सम्मान बढ़ाएगा।

उनके घर के समीप एक नर्तकी गायिका रहती थी। जब वे उसके कोठे से संगीत की मधुर ध्वनि को सुनते तो बावरे हो जाते थे। उस वेश्या का एक मशहूर गीत था- ‘कौन बुझावे तपत मोरे मन की’। इस गीत से वे इतना प्रभावित और आकर्षित हुए कि माँ द्वारा लगाए गए लाख प्रतिबंधों के बावजूद छुपकर उस वेश्या के घर के बाहर जाते और एक कोने में बैठकर उसके संगीत को सुन स्वयं भी गुनगुनाते। मानसिक तौर पर वेश्या को उन्होंने गुरु बना लिया और एक लक्ष्य की तरह दूर रहकर संगीत सीखने लगे। बाद में हिंदुस्तान ग्रामोफोन रिकॉर्ड कंपनी में अपनी वेश्या गुरु की ख्याति-प्राप्त बंदिश गाकर कुंदन लाल सहगल ने अपने गुरु को अमर कर गुरुदक्षिणा प्रदान की।

एक बार कुंदन के बड़े भाई गंभीर रूप से बीमार पड़ गए। डॉक्टर ने उनके पिता को सलाह दी कि मरीज को प्रसन्नचित्त रखने के लिए संगीत का सुनना आवश्यक है। इसी से ये रोगमुक्त हो सकते हैं। पिताजी ने डॉक्टर की सलाह से एक हारमोनियम खरीदा और एक संगीत शिक्षक नियुक्त किया। संगीत शिक्षक के साथ कुंदन लाल भी अभ्यास करते। इस प्रकार भाई के आरोग्यता हेतु इस संगीत आयोजन से वे संगीत सीखकर प्रवीण हो गए। उनकी पढ़ाई सिर्फ आठवीं तक ही हुई। कारण, पढ़ाई से अधिक दिलचस्पी संगीत से थी।

कुंदन लाल सहगल की आरंभिक संगीत यात्रा में न्यू थिएटर्स फिल्म कंपनी कलकत्ता के पंकज मालिक, संगीतकार बोराल और बी. एन. सरकार की मुख्य भूमिका रही। सन् 1930 के करीब नृपेन मजूमदार ने पंकज मलिक से कहा कि एक लड़का मुझसे मिलने हेतु बाहर खड़ा है। मैं व्यस्त हूँ, अतः तुम जाकर मुझसे मिलने का प्रयोजन उससे जानो। पंकज मलिक बाहर निकले तो उन्होंने देखा कि एक लम्बी कद-काठी के बालक ने उठकर उन्हें प्रणाम किया और रेडियो में गाने का अवसर पाने का आग्रह किया। उसने गाना सुनाया। उनकी आवाज़ सुन सभी लोग बाहर आ गए और प्रभावित होकर रेडियो के साथ फिल्मों में भी गाने का निमंत्रण दे डाला।

उसी दिन ऑल इंडिया रेडियो से कुंदन लाल सहगल की दो ग़ज़लें प्रसारित की गईं और दूसरे ही दिन फिल्मों में काम करने का प्रस्ताव भी स्वीकार कर लिया। सन् 1931 में वे न्यू थिएटर्स में दाखिल हुए। सन् 1936 के लगभग सहगल साहब को बहुत ही प्रसिद्धि मिली और उनकी गिनती बड़े कलाकारों में होने लगी। उनके गाए गीत को संगीत का अर्क माना जाता है। यद्यपि उनके गाए गीतों की संख्या सौ-सवा सौ से अधिक नहीं है, किन्तु प्रत्येक गीत अपने में एक मील का पत्थर है। श्रोता उनके गीतों को बार-बार सुनकर भी ऊबता नहीं है।

सन् 1932 में बनी फिल्म ‘राजरानी मीरा’ में सहगल ने मात्र एक ही गाना क्षण भर के लिए गया, जिसने अन्य प्रसिद्ध गायकों के गीतों को काफी पीछे छोड़ दिया। सहगल के काल में एच. एम. वी. कंपनी ग्रामोफोन की प्रसिद्ध कंपनी थी। उसने सहगल की आवाज़ को रिजेक्ट कर दिया। बाद में एक अन्य कंपनी हिंदुस्तान कंपनी ने उनके गीतों का रिकॉर्ड बनवाया। उनका रिकॉर्ड जब बाजार में आया तो दो महीने के अंदर ही सभी बिक गए। बाद में रिकॉर्ड की बिक्री पर उन्हें रॉयल्टी देना कंपनी ने स्वीकार किया।

उस्ताद अब्दुल करीम खाँ कुंदन लाल सहगल के प्रिय गायक थे। ‘देवदास’ फिल्म में उनकी गाई लोकप्रिय ठुमरी को उन्होंने फिल्म में रिकॉर्ड करवाया, जिसे सहगल ने स्वयं गाया। करीम खाँ ने जब फिल्म में इस गाने को सुना तो उनकी आँखों से खुशी के आँसू छलक उठे। इलाहाबाद के एक संगीत सम्मलेन में उस्ताद फैयाज खाँ, उस्ताद अब्दुल करीम खाँ, पं. ओमकार नाथ ठाकुर जैसे दिग्गज महारथियों का कार्यक्रम हुआ। उन सभी के बाद उनकी बारी आयी। उन्होंने स्ट्रीट सिंगर फिल्म का ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय’ गाया। गाना समाप्त होते ही लोगों ने फरमाइशों की झड़ी लगा दी। उसी क्षण फैयाज खाँ ने गले का मोतियों का हार निकालकर उनके गले में डाल दिया। उन्होंने नम्रतापूर्वक कहा कि. “उस्तादजी, समय निकालकर मुझे तालीम दीजिए।” उस्ताद फैयाज खाँ ने उनके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “बेटा! अब मैं तुझे क्या सिखाऊँ? तू तो सब कुछ सीख गया है। अब तुझे सिर्फ संगीत परोसने का काम ही करना है।”

उनके उपर्युक्त ऐतिहासिक विवेचनों के पश्चात अन्य विशेषताओं का उल्लेख करना आवश्यक है। वे लम्बे अंतराल तक फिल्मों में अभिनेता के साथ प्रसिद्ध गायक रहे। आज भी संगीत-प्रेमी बड़े आदर के साथ उनके नाम का स्मरण करते हैं। वे अपने समय के आदर्श थे और प्रत्येक गायक उन्हीं की शैली का अनुकरण करता था। उन्होंने फिल्मों में गीत, भजन, ठुमरी और ग़ज़लों को बड़ी खूबी व दक्षता के साथ गाया है। उनकी आवाज़ बड़ी सधी हुई थी। सामान्यतः वे पाँचवीं काली से गाते थे। उनके गायन में सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनके स्वर में स्वाभाविकता एवं सहजता थी।

उनकी संगीत शिक्षा में प्रशिक्षण का अंग विद्यमान नहीं था, अर्थात उन्होंने संगीत को नियमबद्ध होकर नहीं सीखा था, तथापि उनकी गायकी में आत्मविश्वास के साथ व्यावहारिक पक्षों का प्रबल तत्त्व समाहित था। वे बड़ी तन्मयता से गीत गाते थे। सहगल में आवाज़ का रेंज बहुत अधिक नहीं था, परन्तु उनकी गायकी में आलाप और तानों का प्रयोग खूब होता था। शब्दों का उच्चारण बहुत अधिक नहीं था, फिर भी ग़ज़ल-गायन को कोठों से आम आदमी तक पहुँचाने में के. एल. सहगल का बहुत बड़ा हाथ रहा है। उनकी गायकी में बंगाल का भोलापन, पंजाब की रंगीनी तथा अवध की शाम घुली-मिली दिखाई देती है।

दिसंबर 1946 की 26 तारीख को जब वे बम्बई सेंट्रल स्टेशन से जालंधर के लिए रवाना हो रहे थे और उनका काफिला जब 28 दिसंबर को जालंधर पहुँचा तो उन्होंने भविष्यवाणी की कि वह अब बम्बई नहीं जाएँगे तथा उनके परलोक प्रवास का समय आ गया है। 17 जनवरी को सारी रात उनके बिछावन के पास ‘भगवद्गीता’ का पाठ उनके भतीजे दुर्गेश ने किया। उनके आखिरी शब्द थे- ‘हम जी के क्या करेंगे, जब दिल ही टूट गया।’ 18 जनवरी 1947 की सुबह सहगल साहब इस दुनिया को छोड़कर चले गए। उनकी वसीयत के अनुसार शवयात्रा में शाहजहाँ फिल्म का ‘जब दिल ही टूट गया’ गीत बजाया गया। उस दिन पूरा जालंधर शहर स्तब्ध हो गया। सहगल की श्रद्धांजलि में नौशाद की पंक्तियाँ, द्रष्टव्य हैं-

ये कहता है कागज़ पे हर शेर आकर,
मुझे काश सहगल की आवाज़ मिलती।

ऐसा कोई फनकार ए मुकम्मिल नहीं आया,
नगमों का बरसता हुआ बादल नहीं आया

मौसिकी के माहिर तो बहुत आए हैं लेकिन,
दुनिया में कोई दूसरा सहगल नहीं आया।

सहगल को फरामोश कोई कर नहीं सकता,
वो ऐसा अमर है कि कभी मर नहीं सकता।

Previous articleआख़िरी दुआ
Next articleकस्तूरबा की रहस्यमयी डायरी

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here