पौराणिक कथाओं में प्रेम पढ़-पढ़कर
मैं सम्मोहित थी

प्रेम के ख़ूबसूरत और श्रेष्ठ आयामों पर
मैं रीझ बैठी थी

अब मैं प्रेम बुन रही थी!

अपनी प्रेम कहानी का कथानक
मैं स्वयं लिख रही थी

पर कहानी का नायक मुझे नहीं मिला!

मनुष्यता की आदिम कहानियों में पढ़कर
अपने प्रेमी का श्रेष्ठ चरित्र मैंने ख़ुद ही गढ़ा!

जब भी दूर से कोई धुँधली छाया दिखी
लगा कि ये वही है, मेरा चिर प्रेमी है

पर जब क़रीब पहुँची
और उसने पलटकर देखा
तो प्रेमी नहीं, पुरुष मिला।

जब-जब मैंने प्रेम करना चाहा
तो घोर निराशा में घिर गई

क्योंकि जब अपनी मुग्धता का जाला साफ़ किया
तो देखा वहाँ मेरा प्रिय नहीं
मेरी कल्पना का वही रचा हुआ भ्रम था।

'जहाँ से कभी कोई जवाब नहीं आया, मैंने वहाँ रोज़ ख़त लिखे'

Recommended Book:

Previous articleशेर आया, शेर आया, दौड़ना
Next articleदुःख

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here