‘Bijliyaan Gagan Mein Aur Chhaatiyon Mein’ | a poem by Bhupendra Singh Khidia.
बिजलियाँ बरस रही हैं,
क्रांतियों में,
बिजलियाँ गगन में और
छातियों में।
इतनी बिजली किंतु दुःख, हाय! बिजलियाँ
मगर नहीं हैं गाँव में,
आबादियों में।
जिनको वोट कर मतों की
ओढ़नी दी,
उनको थालियों की धूल
पोंछनी थी।
तश्तरी को चाहिए थी रोशनी, चमक,
रोशनी में थालियाँ
परोसनी थीं।
चुन ली लोकतंत्र की ये
कैसी बोगियाँ?
जिनमें रोशनी नहीं,
न आती रोटियाँ
जा रहा रुपया पटरी से पाताल में
और जा रही ले
सरकार बोगियाँ।
तपन नहीं बची ज़रा भी
आग में जी,
जोल ही तो रह गया है
साग में जी,
भीड़ कानफोड़ू स्वर में चीख़ती है,
संगीतकार गा रहे
न राग में जी…
ढ़ोल ताल से बेताल
हो गए हैं,
गोडसे बचे हैं, गाँधी
सो गए हैं,
और जो चले बचाने गांधियों को
वो भी नोट छाप
गाँधी हो गए हैं
राक्षसी घुसी है कोई
चण्डी में,
पी रही लहू की धार
मण्डी में,
रक्तछींट का वो लाल-लाल रंग
सूख के जा बदला
बरगंडी में
इसका उससे और सबसे
पंगा ही,
देखो जहाँ पे होता
दंगा ही,
और पूछते कि हाल-चाल बोल दो
नेताजी बोलते-
‘सब चंगा सी’
नेताजी बोले-
‘सब चंगा सी’
बिक गयी है मीडिया
समाचार भी,
उँगलियों पे चल रहे सब
सरकार की,
जिससे मिला पैसा उसके साथ हो गए,
बाक़ी सारी बातें हैं
बेकार की
बिजलियाँ बरस रही हैं
क्रांतियों में,
बिजलियाँ गगन में और
छातियों में।