‘Bonsai Ki Bebasi’, a poem by Prita Arvind
जब वो छोटी थी
तो सब कुछ ठीक था
उसकी जड़ें गहरी नहीं थीं
तन भी पतला था
उसकी देह पर फल कोई नहीं
पत्ते भी कम ही थे
लेकिन वो ख़ुश थी
आसमान छूने का
अरमान था उसके अन्दर
बसंत की बयार और
बरसात की बौछार में
वो अन्दर तक भीग जाती थी
फिर एक दिन अचानक
उसे जड़ से उखाड़कर
एक उथले से गमले में
ज़बरदस्ती जमा दिया गया
खाद पानी भी नाप-तौलकर
हिसाब से दिया जाने लगा,
उसकी टहनियों को
तार से बाँधकर
एक निश्चित आकार देने की
कोशिश की जाने लगी…
साल दर साल उसका तन
मज़बूत पर विकृत हो रहा था
और उसकी आसमान छूने की
ख़्वाहिश पर पहरा लगा था
चहुदिश विस्तार की आज़ादी
छीन ली गई थी उसकी
ड्राइंग रूम की मेज़ पर उसे
सजा दिया गया था
लोग बोन्साई को देख उसकी
सुन्दरता के दीवाने हो रहे थे
लेकिन कोई उसके दिल में
झाँकता न था कि
बौना बना दिये जाने का
कितना दर्द था उसके सीने में
बोन्साई की बेबसी की
किसी को फ़िक्र न थी
वो उन सबसे कहना चाहती थी
कि सुन्दर लगने से अधिक
ज़रूरी है स्वतन्त्र होना!
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