बीरसा मुण्डा, जिसके पूर्वज जंगल के आदि पुरुष थे और जिन्होंने जंगल में जीवन को बसाया था, आज वही बीरसा और उसका समुदाय जंगल की धरती, पेड़, फूल, फल, कंद और संगीत से बेदख़ल कर दिया गया है! उनके पास खाने को नमक नहीं, लगाने को तेल नहीं, पहनने को कपड़ा नहीं! ज़मींदार और महाजनों के क़र्ज़ों में डूबी यह जाति ख़ुद को मुण्डा कहलाने में भी शर्म महसूस करती है। सदियों के दमन ने उन्हें विश्वास दिला दिया है कि मुण्डाओं का तो जीवन ही है इस श्राप को भोगते रहना। और नए क़ानूनों के चलते, क़िस्मत, अंधविश्वासों और टोन-टोटकों में फँसा यह समुदाय जंगल के कठोर जीवन में रहने के लायक़ भी नहीं रहा।

ऐसे में बीरसा, एक छोटी उम्र का नौजवान मिशन के स्कूल में थोड़ा पढ़कर, बंसी बजाकर, नाच-गाकर एक दिन ख़ुद को इस समुदाय का भगवान घोषित कर देता है, और मुण्डा लोग उसे भगवान मानने लगते हैं, क्योंकि उन्हें बताया गया था कि एक दिन भगवान मुण्डाओं में ही जन्म लेगा और उनका उद्धार करेगा।

बीरसा ने—जिसकी अपने समुदाय के अधिकारों व स्वाभिमान के लिए लड़ने के कारण अंग्रेज़ों द्वारा एक साजिश के तहत पच्चीस साल की छोटी उम्र में हत्या कर दी जाती है—ऐसा क्यों किया और ऐसा करने से उसे क्या मिला, इसकी एक समझ मिलती है महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ के इस अंश से! ज़रूर पढ़िए!

किताब अंश: ‘जंगल के दावेदार’ – महाश्वेता देवी

बीरसा ने आँखें पोंछी। आँखों में ज्योति नाच रही थी; किरच के फल में सूर्य चमक रहा था। उससे किसी ने कहा, “दो साहब बढ़े क्यों आ रहे हैं?”

बीरसा ने घूमकर देखा, सुनारा—वही किशोर लड़का था। उसके होंठ सफ़ेद थे। आँखों में आश्चर्य था!

लड़के को मुर्ग़ी कटती देखकर भी डर लगता था। उससे एक दिकू ने बेगारी का पट्टा लिखा लिया था। वही दिकू उसका महाजन था—उसके इस जीवन और अगले जीवन का मालिक था। मुण्डा से बेगारी का पट्टा लिखाना बहुत आसान है न! अँगूठे की निशानी लगाते ही वह महाजन या ज़मींदार या जोतदार का ग़ुलाम बन जाता है। दास-प्रथा व्यवसाय नहीं है, यह कहने भी से कोई फ़ायदा नहीं। कोई मुण्डा कचहरी में मुक़दमा करने नहीं जाएगा, क्योंकि पट्टे का मालिक सब कुछ अस्वीकार कर देगा। मुण्डा जानते हैं कि दिकू का पंजा बाघ के पंजे से भी भयंकर होता है। वह पंजा मुण्डा के इहकाल और परकाल पर हमेशा तना रहता है!

यह लड़का उस सबको हेच करके आया है। सैलराकार पहाड़ पर बन्दूक़ हाथ में लिए खड़ा है; बीरसा की ओर देखकर कह रहा है, “दो साहब बढ़े क्यों आ रहे हैं?”

बीरसा ने समझा कि उसने इसी असम्भव को सम्भव किया है। वह ईश्वर है। अभी एक अणु-क्षण में उसे लगा— “मैं भगवान हूँ। मिशन में सीखा था कि यीशु ने एक रोटी से अगणित लोगों को खिलाया था! आनन्द पाण्डे ने सिखाया था कि प्रह्लाद की भक्ति से खम्भा चीरकर नरसिंह रूप में भगवान विष्णु निकल पड़े थे! यह देखो, मैं उनका-सा ही हूँ। मैं भगवान हूँ! लँगोटी पहने, दासों के दास, अत्यन्त ग़रीब मुण्डा लोगों को हाथों में बाँस के धनुष, और केवल कुचला-तीरों के साथ मैंने आधी दुनिया के मालिकों की फ़ौज के सामने ला खड़ा किया है। उनके मन से डर दूर किया है! मैं भगवान हूँ, मैं भगवान…।

“मैं मुण्डा हूँ। मिशन में सीखी थोड़ी-सी अंग्रेज़ी की तरह हमारी भाषा नहीं है— उस भाषा में हज़ारों-लाखों शब्द हैं। दिकू लोगों की भाषा में भी हज़ारों-लाखों शब्द होते हैं। हमारी मुण्डारी में इतने शब्द नहीं हैं, लिखने के अक्षर भी नहीं हैं। जितने शब्द देखते-सुनते हो, सभी हमारी आँतों को नोचकर, रक्त में भिगोकर सिरजे गए हैं। हम लिखते नहीं हैं—गान सिरजते हैं। जिनके लिखने के अक्षर नहीं हैं वे क्या बर्बर हैं, असभ्य हैं? उस तरह के बर्बर लोगों को मैंने ढेले और गुलती थमाकर खड़ा कर दिया है! मैं भगवान हूँ…।”

“हे, भगवान हूँ मैं! जो वे ढेले मारकर बढ़ते हैं, उनके देश में, इस मुण्डा देश में उनके घरों में तमाम ग़लीचे, पंखे, खाट, बिस्तर, काँच, कुर्सी, शीशे की बत्तियाँ, चाँदी के थाल, शराब की बोतलें, गाड़ी, घोड़ों की जोड़ियाँ और सैकड़ों नौकर हैं। हम मुण्डा लोगों के घरों में कुछ नहीं है; कुछ नहीं रहता। अकाल आता है; सूखे में सब जल जाता है। मेरे बाबा ने कहा था: रिकॉर्ड में मुण्डा लोगों को ‘चोर बदमाश’ के सिवा किसी दूसरे नाम से कभी नहीं पुकारा गया! मुण्डा लोगों के प्राण और मन नहीं होते। वे घर जलने पर आग नहीं बुझाते, घर छोड़कर चले जाते हैं। मुण्डा लोगों का घर जब जलता है, उस समय जलता क्या है? इस मुण्डा देश में मुण्डा के घर काठ-पत्ते-लता, ऊबड़-खाबड़ मिट्टी-पत्थर से बने रहते हैं। उस घर में रहती हैं घास की बनायी चट्टियाँ, मिट्टी की हाँडियाँ- और रहता ही क्या है? जो लाठी मारकर आगे बढ़ते हैं, वे ही असल में बढ़ते हैं, वे ही दुश्मन हैं; दिकू लोग उनके साथ मिले रहते हैं; मुण्डा लोगों के ख़ून में मैंने यह बात डाल दी है। मैं भगवान हूँ। भगवान!”

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महाश्वेता देवी
महाश्वेता देवी (14 जनवरी 1926 – 28 जुलाई 2016) एक भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका थीं। उन्हें 1996 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उनकी कुछ महत्वपूर्ण कृतियों में 'नटी', 'मातृछवि ', 'अग्निगर्भ' 'जंगल के दावेदार' और '1084 की मां', माहेश्वर, ग्राम बांग्ला हैं। पिछले चालीस वर्षों में,उनकी छोटी-छोटी कहानियों के बीस संग्रह प्रकाशित किये जा चुके हैं और सौ उपन्यासों के करीब (सभी बंगला भाषा में) प्रकाशित हो चुकी है।

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