पत्थर की तरह तराशो मुझे
राम बना सको तो
युद्ध के काम आऊँगा
रावण बना दो तो
किसी सीता को उठाने के
अर्जुन बना दो तो किसी विपदा में फँसे कर्ण का वध कर सकूँ
दुर्योधन बना दो तो
‘अपमान की हँसी’
को बदला समझकर
फिर किसी द्रौपदी को बेआबरू कर दूँ।
पर ना बनाना मुझे गांधारी
या भीष्म या धृतराष्ट्र
जो अंधे बने रहे निष्कारण
मुझे नहीं बनना है अश्वत्थामा
जो घूमता रहा सदियों से
खून से भरा ज़ख्म लिये
ना बनाना द्रोण
जो मांग बैठे किसी का अंगूठा
ना बनाना मुझे कुंती
जो अपने ही खून को
अपना ना कह सकी।
इतना तराशना मुझे कि
अनगिनत नुकीले घाव
सहकर भी
रहे मेरा मन शांत
शस्त्र, युद्ध, लहू से दूर रखकर ही
मुझे बनाना तुम
‘बुद्ध’
चाहे सौ घाव लगा दो अधिक।
हाँ…
मैं बुद्ध बनूँ, यही है आवाज़
इस पत्थर की।