हमारे आँसुओं की आँखें बनाई गईं
हम ने अपने-अपने तलातुम से रस्सा-कशी की
और अपना-अपना बैन हुए
सितारों की पुकार आसमान से ज़ियादा ज़मीन सुनती है
मैंने मौत के बाल खोले
और झूठ पे दराज़ हुई
नींद आँखों के कंचे खेलती रही
शाम दोग़्ले-रंग सहती रही
आसमानों पे मेरा चाँद क़र्ज़ है
मैं मौत के हाथ में एक चराग़ हूँ
जनम के पहिए पर मौत की रथ देख रही हूँ
ज़मीनों में मेरा इंसान दफ़्न है
सज्दों से सर उठा लो
मौत मेरी गोद में एक बच्चा छोड़ गई है…

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सारा शगुफ़्ता
(31 अक्टूबर 1954 - 4 जून 1984)सारा शगुफ़्ता पाकिस्तान की एक बनेज़ीर शायरा थीं। 1980 में जब वह पहली और आख़िरी बार भारत आयी थीं तो दिल्ली के अदबी हल्क़ों में उनकी आमद से काफ़ी हलचल मच गयी थी। वह आम औरतों की तरह की औरत नहीं थीं। दिल्ली के कॉफी हाउस मोहनसिंह प्लेस में मर्दों के बीच बैठकर वह विभिन्न विषयों पर बहस करती थीं। बात-बात पर क़हक़हे लगाती थीं। पर्दे की सख़्त मुख़ालिफ़त करती थीं और नारी स्वतन्त्रता के लिए आवाज़ बुलन्द करती थीं। यही नहीं वह आम शायरात की तरह शायरी भी नहीं करती थीं। ग़ज़लें लिखना और सुनना उन्हें बिल्कुल पसन्द न था। छन्द और लयवाली नज़्मों से भी उन्हें कोई लगाव नहीं था। वह उर्दू की पहली ‘ऐंग्री यंग पोएट्स’ थीं और ऐंगरनैस उनकी कविता की पहली और आख़िरी पहचान कही जा सकती है।

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