मूल कविता: सुजाता महाजन
अनुवाद: सुनीता डागा

छोड़ना होगा
उम्र के चालीसवें पड़ाव पर
आँख मूँदकर जीने की परिपाटी को,
दिन रेत की तरह
हाथ से फिसलता जाता हो
तब नहीं मिला सकते हैं
रात्रि की आँखों से आँखें!

आधे-अधूरे ज्ञान के टुकड़े
देते हैं दर्द यहाँ-वहाँ चुभकर
और भीतर उठते आवेग
रख देते हैं अंगों को निचोड़कर
रास्ते
पगडण्डियाँ
मोड़…
सभी दे जाते हैं चकमा
बहते जाएँ धारा के साथ
भँवर में उलझ जाएँ
ग़श खाकर
लुढ़कते चले जाएँ
ठेल दे स्वंय को नीचे
किसी पहाड़ी से या
राहों की गुत्थियों में अटके क़दम
छुड़ाते-छुड़ाते
किसी सीधी-सपाट राह पर
छोड़ दें ख़ुद को
कुछ भी तो समझ में नहीं आता है

ऐसे टूटे क्षणों में
दिन इतना भोला बनता हुआ
और
रात्रि
फ़ैसले की प्रतीक्षा में
आक्रामक!

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