‘Chor’, a poem by Sunny Kumar Bozo

मैंने तो सिर्फ़ बेचे हैं
अथाह धन वाले
सेठ के गल्ले पर
पड़े हुए रद्दी पेपर

मैंने तो सिर्फ़ चुरायी हैं
दो कचौरियाँ
जो मैं ग्राहक को देने वाला था

मैंने तो सिर्फ़ चुराए हैं
मन्दिर के बाहर रखे जूते
जो कभी किसी
नेता पर नहीं चलाए गए

मैंने तो सिर्फ़ चुराया है
इस समाज की ग़रीबी को
जिससे कि बाक़ी लोग
धनवान कहे जा सकें

मैंने तो सिर्फ़ चुरायी है
भूख, ताकि सिर्फ़ मैं स्वाद ले सकूँ
दिन से हफ़्ता, हफ़्ते से महीने
में बदलते उपवास का

लेकिन मुझे इस बात के लिए
चोर मत कहना कि
मैंने किसी से चुरायी है
बारिश में भीगने की
ख़ुशी,
कि मैंने चुरायी है
सूरज से
उसकी गर्मी,
और मेरा रंग पक्का हो गया..

बस अब ख़याल हो कि
मेरे हक़ में आने वाला ‘कुछ भी’
तुमने न रखा हो।

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