दो चुप्पियाँ
एक दिन, एक दूसरे से ग़ुस्सा हो गयीं
दोनों एक कमरे के
दो कोनों में अपने घुटने मोड़कर
बैठी रहीं,
आपस में ऐंठी रहीं
आपस में दोनों के दूरी ज़्यादा नहीं थी
पर दोनों का यह सोचना था
कि वो अपनी जगह सही थी!
किसी के भी बीच में चुप्पी तोड़ देने पर
वे एक दूसरे के थोड़ा करीब आ सकती थीं
लेकिन पहले पहल करे कौन
इसकी ना-समझी थी,
दोनों चुप्पियों में एक-एक अकड़ भी अकड़ी हुई थी
अकड़ की पकड़ दोनों को लपक जकड़ी हुई थी
‘बात’ इन दोनों की बात बनाना चाह रही थी
पर अकड़ इस बात के आड़े आ रही थी
आपा दोनों चुप्पियों का खो चुका था
मौन दोनों चुप्पियों का हो चुका था
पहले ये दोनों चुप्पियाँ कितनी
कितनी बातूनी थीं
पर अब तो सुबह थी खामोश
और शाम भी सूनी थी
मौका पाकर बात ने सोचा
बात करेंगे
जो भी हो मसला असली
मामला साफ हाथों-हाथ करेंगे
आखिरकार एक बात बीच में आयी
दोनों चुप्पियों ने दी अपनी अपनी सफाई
बातें जब थोड़ी बढ़ीं
चुप्पियों की दूरियाँ घटीं
बढ़ती गयी बातें
घटती गयीं दूरियाँ
उतार चढ़ाव हुआ
संवाद के ज्वार-भाटों का
दो चुप्पियों का हुआ मिलन
और जन्म हुआ चहचहाटों का!