आज फिर रात आकर
दरवाज़े पर मेरे
खड़ी हो गयी
और नींद
खिड़की के रास्ते बाहर
निकल गयी
ऐसा कोई पहली बार
नहीं हुआ
कई रातें बीती हैं ऐसी
एक अजीब-सा
मूकयुद्ध छिड़ा है
मेरी रात और नींदों का
आँगन की चारपाई
पर बिछी
सफ़ेद चादर की सिलवटें
हमेशा गवाह बन जाती हैं
मध्यस्थ बने सपनों के
क़त्ल की
मैंने अब मूँद ली हैं
अपनी आँखें
और क़ैद कर लिया है
सपनों को
उनके सारे साज़ो सामान के साथ
ताकि फिर किसी
मध्यस्थता में
उनका खून न हो
जैसे मिस्र में लोग
ताबूतों में बन्द कर देते थे
मृत देह को
जीवन की आस में…

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