वो था मासूम जब
सपने बड़े गहरे थे
जितनी बड़ी आँखें थी उसकी
उससे कहीं बड़े थे सपने उसके
देखा था बस कच्चा घर
मिट्टी, तितली, सुराही, घड़े
बीत रहा था समय जैसे-जैसे
सपने ले रहे थे करवटें
जिजीविषा उसकी बड़ी थी
था आकाश को चूमना
और ब्रह्माण्ड में घूमना
पर कुचल रही थी घड़ी
सपनों को उसके
जी तो रहा था वो भी
पर सपनों से दूर
अपनों से हारकर
हृदय था उसका प्रेम का सागर
दे गया सपनों की बलि
अपनों के लिए
पर अपना नहीं था उसका कोई
अकेला ही था वो मन से
दोस्त भी तो न था कोई
सब रिश्ते थे बस नाम के
वो मासूमियत अब ना रही लेकिन उसमें
और सपने भी उसके
धुँधले हो गए।

Previous articleमुठ्ठी भर बचपन
Next articleयारो कू-ए-यार की बातें करें
अनुपमा मिश्रा
My poems have been published in Literary yard, Best Poetry, spillwords, Queen Mob's Teahouse, Rachanakar and others

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here