‘Dhugdhugi’, a poem by Sunita Daga
एक ही छत के नीचे रहकर
मृतप्राय रिश्ते के कलेवर को
सम्भालकर रखने की जद्दोजहद
और
अपनी-अपनी सीमाओं के भीतर
ठण्डे निस्तब्ध कलेवर को
सजाते हुए
दीमक ना लगे इसलिए
की हुई जी-तोड़ कोशिशें
जैसे कोई ममी हो
सहेजकर रखी गई
सब-कुछ बढ़िया चल रहा है
इस भ्रम में चलते हुए
कल रात में
देरी से घर लौटने पर
उसके माथे पर पड़ी त्यौरियों को देखकर
हकबक रह गई वह
अच्छा! इस कलेवर में
कोई धुगधुगी है बाक़ी
बची हुई अभी!