मैं और मेरी कल्पना
देखते हैं मिलकर दिवास्वप्न
बैठते हैं एकांत मन की झील के
घाट पर तटस्थ होकर
अपलक निहारते आशाओं के
अधखिले श्वेत ब्रह्मकमल।

निमिष प्रलोभन मात्र से
विलीन होते अस्तित्व का
विक्षोभ
सह लेते हैं…
मैं और मेरी कल्पना।

मैं और मेरी कल्पना
उद्दीप्त करते हैं घोर तिमिर
अति व्याप्त अमावस की
यामिनी का आंचल
अखंड आस्था विश्वास के
अनगिनत दिये की
मध्यम लौ से।

ज्योतिर्मय आभा समेटती अंतरा
सह लेती
उन्मुक्त पवन के आवेग विप्लव
मैं और मेरी कल्पना
साक्षी हैं उस वियोग की
उद्दातता के।

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प्रीति कर्ण
कविताएँ नहीं लिखती कलात्मकता से जीवन में रचे बसे रंग उकेर लेती हूं भाव तूलिका से। कुछ प्रकृति के मोहपाश की अभिव्यंजनाएं।

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