बहुत देर है
बस के आने में
आओ
कहीं पास की लॉन पर बैठ जाएँ
चटखता है मेरी भी रग-रग में सूरज
बहुत देर से तुम भी चुप-चुप खड़ी हो
न मैं तुमसे वाक़िफ़
न तुम मुझसे वाक़िफ़
नयी सारी बातें, नये सारे क़िस्से
चमकते हुए लफ़्ज़, चमकते लहजे
फ़क़त चन्द घड़ियाँ
फ़क़त चन्द लम्हे
न मैं अपने दुख-दर्द की बात छेड़ूँ
न तुम अपने घर की कहानी सुनाओ
मैं मौसम बनूँ
तुम फ़ज़ाएँ जगाओ!
निदा फ़ाज़ली की नज़्म 'ख़ुदा का घर नहीं कोई'