रुचि की कविता ‘गढ़न’ | ‘Gadhan’, a poem by Ruchi

गढ़ना चाहती थीं ना तुम मुझको बेहतर, बेहतरीन।
सामंजस्य की तीखी सुइयाँ गहरी धँसायी थीं ना तुमने,
मेरे तिलमिलाने पर कहती थीं कि आदत डाल रही हूँ,
इतने दर्द की, कि बाकी सारे दर्द हल्के लगें।

संस्कारों के भारी टोकरे रख दिये थे ना सर पर,
कि सदैव सर थोड़ा झुकाकर चलो,
कोशिश ना करे कोई अकड़ कम कराने की।
कितना कहा था गर्दन पर बल पड़ता है,
सिर झुकता लगता है, पर मान बनना चाहती थी तुम्हारा।

सही-ग़लत का फ़र्क़ बख़ूबी सिखाया पर अपनों से क्या सही, क्या ग़लत का क्यूँ पाठ पढ़ाया।
जानती नहीं थी क्या अपनों से ही जबाबदेही होती है।

क्यूँ सिखाया अपनी बातों पर आँख मूँद विश्वास करना।

ज़िन्दगी दोहरे फ़लसफ़ों से जी जाती है।
क्या तुम ख़ुद भी अनभिज्ञ थीं इस रहस्य से तो
लो आज मैं सिखा रही हूँ तुमको

सामंजस्य को चापलूसी बताते हैं,
संस्कारों को ढोंग,
सलीक़े को नफ़ासत
सही-ग़लत को जिरह बताते हैं
और आँख मूँद विश्वास करना होता है
जीवन की सबसे बड़ी भूल।

आगे भी बताऊँगी जब-जब नये फ़लसफ़े
सीख कर आऊँगी।
तुम दिल छोटा मत करना पर,
काश तुम्हारी तरह मेरे पास भी होता
एक शिशु मन।
जो बेपरवाह हो जाता ख़ुश,
जो भुला देता क्षण में आँसुओं को।
जो नहीं आता दुनियादारी के छलावों में।
जो नहीं सीख पाता दोहरे फ़लसफ़े ज़िन्दगी के।

Previous articleबूढ़े होते माँ पापा
Next articleसार्वजनिक ज़िन्दगी

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here