दरवाज़े के पीछे
परदे की ओट से
झाँकती औरत
दरवाज़े से बाहर देखती है-
गली-मोहल्ला, शहर, संसार!

आँख, कान, विचार स्वतन्त्र हैं
बन्धन हैं सिर्फ़ पाँव में
कुल की लाज
सीमाओं का दायरा
घर की चौखट तक
मायका हो या ससुराल
दरवाज़े के पीछे
परदे की ओट से
वह देखती है संसार
समझने लगी है सब
फिर भी है चुप
हिलाकर हाथ अपने
स्वयं पकड़ लेती है बन्धन
जकड़े रहने देती है पाँव

अब
आने वाली पीढ़ियों को
बचाना होगा।
रास्ता देना होगा—
आगे बढ़कर
घर की चौखट से बाहर निकलना होगा!

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सुशीला टाकभौरे
जन्म: 4 मार्च, 1954, बानापुरा (सिवनी मालवा), जि. होशंगाबाद (म.प्र.)। शिक्षा: एम.ए. (हिन्दी साहित्य), एम.ए. (अम्बेडकर विचारधारा), बी.एड., पीएच.डी. (हिन्दी साहित्य)। प्रकाशित कृतियाँ: स्वाति बूँद और खारे मोती, यह तुम भी जानो, तुमने उसे कब पहचाना (काव्य संग्रह); हिन्दी साहित्य के इतिहास में नारी, भारतीय नारी: समाज और साहित्य के ऐतिहासिक सन्दर्भों में (विवरण); परिवर्तन जरूरी है (लेख संग्रह); टूटता वहम, अनुभूति के घेरे, संघर्ष (कहानी संग्रह); हमारे हिस्से का सूरज (कविता संग्रह); नंगा सत्य (नाटक); रंग और व्यंग्य (नाटक संग्रह); शिकंजे का दर्द (आत्मकथा); नीला आकाश, तुम्हें बदलना ही होगा (उपन्यास)।

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