‘Globe’, a poem by Anupama Jha

जीवन के रंगों को
अपने गोलार्द्धों में समेटे
गोल घूमता ग्लोब
प्रतीत होता है
एक स्त्री जैसा।
अपनी धूरी पर घूमता,
अल्हड़ पहाड़ी नदी की चंचलता
सागर की गम्भीरता
धरती की सहिष्णुता
आकाश की उन्मुक्तता
सब को अपने में समेटे,
पृथकीकरण करता है
बारीक लकीरों से
सबकी हदें,
बिल्कुल स्त्रियों जैसा।

देखो ग्लोब को, ध्यान से
झुका हुआ है एक ओर
शायद यह भी
सबके भार से
बना रहा सन्तुलन
अपने में समेटे दुनिया का
जैसे स्त्री समेटती है, अपनी दुनिया
अपनी धूरी पर घूमते
और जाती है झुक
सबका भार उठा…

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अनुपमा झा
कविताएं नहीं लिखती ।अंतस के भावों, कल्पनाओं को बस शब्दों में पिरोने की कोशिश मात्र करती हूँ।

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