हमेशा दायरे की हद से बाहर सोचते हैं हम
दिखाते हैं तुम्हें दरिया समंदर सोचते हैं हम
हमेशा टूट जाना भी बहुत अच्छा नहीं होता
उठाते वक़्त ख़ुद को ही ये अक्सर सोचते हैं हम
हमेशा नींद आती थी मुसलसल ख़्वाब आते थे
पर अब हालात ऐसे हैं कि शब भर सोचते हैं हम
मिटाकर हाथ की सारी लकीरें नाज़ करते हैं
हमारे हाथ का लिक्खा मुकद्दर सोचते हैं हम
हमारे हक़ में तो ये ख़्वाब तक अच्छे नहीं आते
हमारे ख़्वाब में तकिया ओ बिस्तर सोचते हैं हम
अभी देखी कहाँ तुमने हमारी सोचने की हद
अभी इससे ज़ियादा और बदतर सोचते हैं हम