‘Hum Poshak Aham Ke’, a poem by Ruchi

हम तमाम औरतों ने पोषित किया अहम्
अपने प्रेमियों, अपने शोषकों और अपने संरक्षकों का।
हम अधीर थीं चुकाने को हर क्षण
मिले हुए हर प्रेम का क़तरा क़तरा।

हम उन सभी गिनती के गौरवान्वित
पलों का हिसाब कर देना चाहती हैं
जिन पलों ने महसूस कराया हमें
बेहिसाब आज़ाद क्षण-भर के लिए।

कृतज्ञ रहीं हमेशा पुरुषों के पुरुषार्थ से,
एक कप चाय, दो वक़्त की रोटी,
एक अदद छत और एक नाम का आश्रय,
कृतघ्न होतीं भी तो कैसे!

सुकून की परिभाषा हमने जानी,
एक घर, एक देवता, दो बच्चे,
चंद तीज़ त्यौहार, कुछ उपवास,
और आजीवन सुखों की कामना।

हमने इजाज़त-भर खुली खिड़की से,
आकाश देखना मंज़ूर किया।
हमने आज़ाद बादल के टुकड़ों को उड़ता
देख ज़ोर से आँखें मींच लीं।

हमने बग़ावत की स्वर लहरियों से,
कान ढाँप लिए पूरी ताक़त से।
अपने मनों के किवाड़ों पर साँकल जड़ दीं मुस्तैदी से,
कि कोई आज़ाद-सा भाव न कर बैठे कभी घुसपैठ।

चौकसी पूरी रखी अपने तन-मन पर,
वफ़ादार रहीं अपने मालिकों के प्रति,
जो प्रताड़ित हुईं, वो नतमस्तक रहीं थोड़े मान के आस में,
जिन्हें प्रताड़ित नहीं किया गया, वो नतमस्तक हुईं प्राप्त मान से।

औरतों की नियति नतमस्तक होना ही है,
हमने उपस्थिति दर्ज करायी काया-भर,
कभी प्रेम में, कभी प्रेम के लिए, कभी प्रेम के बाद।

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