‘Jaise Taise Ug Aane Ke Liye’, a poem by Sunita Daga

मोह की फिसलन भरी राहों को
ठुकराया था निग्रह से भरकर
क‌ई मन किए थे आहत जानबूझकर
तब
तटस्थता से सब-कुछ देखने की
समझदारी थी वह या
थी ज़िद कुछ भी
न पनप पाएं इसकी?

नकारते हुए पग-पग पर
जीवन की हरियाली को
नहीं उग आएगी अब कोई
खरपतवार भी
मन की जमीन पर
इसे भी बड़ी आसानी से
भुला दिया ही गया था

तब क्या अटल ही था
मन की अभेद्य दीवारों को बींधकर
तुम्हारी आकुल आवाज़ का
कानों में उतर जाना
और सारे निग्रहों का
धराशाई हो जाना?

तुम्हारी विरक्त आँखों की
भीगी-भीगी आसक्ति
नहीं तोड़ आयी यह भ्रम कि
ऐसी एकाध झड़ी ही होती है
सराबोर कर देनेवाली
शेष तो सूख जाना ही
होता है अंतिम

और अब जब कि तुम्हारा मार्ग
प्रशस्त कर दिया है मैंने
(वह भी तो अटल ही था)
तब
कम‌उम्र हरियाली को रौंदते
धुँधले विलिन होते जाते
तुम्हारे निर्मोही क़दमों तले
उग आए हैं
क‌ई हारे हुए रिश्ते
घास-पात की तरह
जिन्होंने माँगी थी कभी
मेरे मन की बंजर ज़मीन
जैसे-तैसे
उग आने के लिए।

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