देखता था स्वप्न जिसको सिरहाने सजाकर
ढाप लेता था जिसे चादर बनाकर
हर जो लेती थी थकावट मास भर की
बन जो जाती थी नियति उस पहर की
कल लिए उस ओर करवट
बिन कहे कुछ, बिन सुने ही सो गयी थी
कल रात..
कल रात आँखों में ही सुबह हो गयी थी..

हृदय कदाचित बन गया था एक बंजर
कोई ग्लानि अंकुरित होती ना जिसपर
तम बादलों की छाँव सा महसूस होता
मन इक धरा जिसपर कोई अम्बर न रोता
और उन क्षणों में मौन के वो हल चलाकर
अंतर में मेरे एक विरक्ति बो गयी थी
कल रात..
कल रात आँखों में ही सुबह हो गयी थी..

प्रेम-संकेतों पे तब विश्वास कर मैं
जब बढ़ा था एक अजाने मार्ग पर मैं
हर एक कदम पर पाँव धँसता जा रहा था
जंगल था वो और मैं भटकता जा रहा था
पा गयी थी इक अचेतन खोह मुझको
संवेदना की जो गली थी, खो गयी थी
कल रात..
कल रात आँखों में ही सुबह हो गयी थी..

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पुनीत कुसुम
कविताओं में स्वयं को ढूँढती एक इकाई..!

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