‘Kalinga Yuddh Ke Baad’, a poem on Ashoka

कलिंग युद्ध से पहले
अशोक
अशोक था
शत्रुओं को रौंदता
रणक्षेत्र में बिजली सा कौंधता
मारता-काटता
लाशें बिछाता
किसी मतवाले हाथी सा चला जाता अशोक था
पर युद्ध के बाद
युद्ध के बाद वह बदल गया
जैसे कोई आदमी तूफान में संभल गया
रक्तपात और मृत्यु के अनेक दृश्यों के बीच
सैनिकों और रणबाँकुरों के शवों को खींच
उसने पूछा था खुद से
आखिर कितनी जमीन चाहिए उसे
और कितना चाहता है वो साम्राज्य विस्तार
सदैव देखता रहा अपनी जीत
क्या कभी देखी किसी की हार
क्या पाया है युद्ध से उसने
क्या शोणित की नदी उसके जीवन का अभीष्ट है
क्या दानव है उसके भीतर या अब भी वह अशिष्ट है
जय-जयकार के नारों के बीच
गर्जन और नगाड़ों के बीच
क्या जो वह चाहता उसे मिल गया
या अपने प्रश्नों से ही वह हिल गया
कलिंग का युद्ध तो उसने जीत लिया है
लेकिन अब इस युद्ध ने उसे विचलित किया है
थामना चाहता है अब वह संहार
मिल रही उसे खुद के हाथों खुद से हार
अब शांति की राह वह चाहता जाना
हां, यह सत्य उसने देर से जाना
पर अब वह कोई युद्ध नहीं ठानेगा
बुद्ध को देखा है
बुद्ध की राह जानेगा
मिलेगा और पूछेगा उनसे
क्या है उसका उत्तरपथ
जिस पथ चलायेगा वह शांति रथ
यही कामना लिए मन में
मिला बुद्ध से वह वन में

हे बोधित्सव अब नहीं चाहता मैं युद्ध
अब नहीं चाहता साम्राज्य विस्तार
अब तक जीत समझता था जिसे
अब उसे समझूं मैं हार
मुझे बताईये वह पथ जिससे हो सके मेरा उद्धार

बोधित्सव मुस्कुराये
सुनी जब सम्राट अशोक की बात
कहा – इतने युद्धों में जीत के बाद
यही आया तुम्हारे हाथ
खैर, शांति का पथ चुनना
यह तो तुम्हारे हाथ है
और बुद्ध तो हर शांति पथिक के साथ है
छोड़ो यह लालसा
त्यागो मोह के हर बंधन को
कर्म वही है श्रेष्ठ जो मुक्ति देता जीवन को
चलो शांति की राह बुद्धं शरणं गच्छामि बोलो
भलेआंखें बंद थी तुम्हारी
अब उन बंद आंखों को खोलो
जय बोलो शांति की
अब शांति की जय बोलो
सुनकर बोधित्सव की बात
बोले अशोक अब मेरा हर कदम उठेगा शांति के साथ
यही हुआ था कलिंग युद्ध के बाद!

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