एक आम सी तंग-गली में ये जो छज्जे पर हरे, नीले, काले, पीले कपड़े सूख रहे हैं, ये आशा भाभी के हैं। आशा भाभी इस मुहल्ले में पिछले कई बरसों से रह रही हैं। सर्दी, गर्मी, बरसात उनका कोई पुरसान-ए-हाल नहीं। पड़ोसी उनसे बात नहीं करते, हंसते-बसते लोगों से लेकर रोते बिसूरतों तक वो सब के लिए एक ख़ौफ़नाक शख़्सियत हैं। नहीं, बदसूरत नहीं हैं। ये देखिए, ये जो लकड़ी के दो पट आपस में भिड़े हुए हैं, इनके अंदर आईए, ऊपर एक तरफ़ को झुकी हुई शिकस्ता सी छत है, जिसके काही कोने देखने से ही अंदाज़ा होता है कि ये मकान कम अज़ कम एक सदी पुराना है। सीढ़ीयां ख़स्ता हैं, ईंट और गारे के बजाय, पत्थर और लकड़ी से मिला-जुला ये मकान अपने हर रंग में बोसीदा होने के साथ साथ ख़ुश-पैकर भी मालूम होता है। इसकी सीमेंटी दीवारों पर रोग़न न सही, इसकी काही कत्थई आँखों में नए ज़माने की बर्क़-रेज़ी का सुर्मा न सही, इसके बे-डौल और बे-सम्त बदन पर सफ़ेद-ओ-ज़र्द पलसतर का उम्दा लिबास न सही, मगर इसमें आशा भाभी की मौजूदगी बताती है कि सब कुछ सही है। यानी जितना भी कुछ है।

हाँ तो हम घर के अंदर घुसे ही थे कि बाहर आ गए। छत तो आपने देख ली, अब ज़रा फ़र्श पर ग़ौर कीजीए, चलने से महसूस नहीं होता? कि ये फ़र्श चोरों के तो क्या बिल्लियों के क़दमों के लिए भी ना-मौज़ूं है। ज़रा आपने एक क़दम उठाकर आहिस्तगी से जमाया कि धब् की एक आवाज़ गूंज पड़ी, ऐसा महसूस होता है जैसे भूल-भुलय्याँ में कोई सरगोशी हो रही हो, क़दम क्या कह रहे हैं, ये जानना तो मुम्किन नहीं, मगर उनकी खुस-फुस से उनकी नीयतों का पेट ज़रूर चाक किया जा सकता है।

आगे बढ़िए तो दो बड़े लक़-ओ-दिक़ कमरे हैं। नहीं नहीं, इस कमरे में न जाईए। न जाने कैसा कैसा काठ कबाड़ यहां पड़ा हुआ है। पुराने चांदी के बर्तन, जिन पर फूल पत्तियों , मौसीक़ी के आलात, क्लासिकल शाइरों के अशआर और ना जाने क्या-क्या तराशा गया है। उन्ही के पास पड़े हैं पुराने चीनी बर्तन, जिनके पास से गुज़रते वक़्त अगर एहतियात ना बरती जाये तो खट से अंगड़ाई की तरह टूट जाएं। फिर कहाँ कहाँ का कपड़ा लत्ता, गठरियां, मख़तूतात, तस्वीरें, एक खुंडला सितार और न जाने क्या-क्या अला-बला। इस कमरे में गए हुए आशा भाभी को भी कई ज़माने गुज़र चुके होंगे। इसी लिए चूहे और छिपकलियों के कई ख़ानदान मालूम होता है पुश्तों से यहां चैन की ज़िंदगी बसर करते हैं। ये दरवाज़ा भिड़ा ही रहे तो अच्छा है।

इस तरफ़ देखिए, दाएं तरफ़। जी हाँ। ये जो कमरा है, अपनी चौड़ाई के लिहाज़ से बराबर वाले गोदाम नुमा कमरे से छोटा है, मगर इसकी ख़ुश-क़िसमती है कि इसमें जो ये जहाज़ी क़िस्म का झरझर करता हुआ पलंग डोल रहा है, इस पर आशा भाभी दोपहर और रात में आराम फ़रमाती हैं, कई दफ़ा लेट कर औंधे सीधे रूमानी और जिन्सी क़िस्से पढ़ती हैं, जिनके लिए उन्होंने क़रीबी बाज़ार में दो दुकानें देख रक्खी हैं। एक चीज़ जो और चौंकाती है, वो है आशा भाभी के कमरे में जुर्म के क़िस्सों पर मुश्तमिल पुराने रिसालों की भरमार। ये क़िस्से उन्होंने कब पढ़े, क्या वो उन्हें पढ़ती भी हैं या सिर्फ़ जमा करने का शौक़ रखती हैं, अगर आप सोच रहे हैं कि इस बोसीदा इमारत की तारीख़ बयान करने के लिए मैं आपको यहां लाया हूँ तो आप ग़लत सोच रहे हैं। ये कहानी तो मुस्तक़बिल की है, यानी आशा भाभी की ज़िंदगी के उस मुख़्तसर ज़माने की, जिसे वो क़रीब पंद्रह साल बाद असल में जीने चली हैं।

ये तो मैंने आपको बताया कि लोग आशा भाभी से डरते हैं। ये नहीं बताया कि क्यों। वजह ये है कि छः साल पहले तक वो अपने शौहर के साथ इस पुश्तैनी घर में आराम से ज़िंदगी बसर कर रही थीं। अचानक एक रात उनके शौहर का उनसे झगड़ा हुआ, मुहल्ले वालों ने इससे पहले कभी न देखा था कि आशा भाभी पर उनके शौहर रात गए ऐसे गरज बरस रहे हों, बल्कि बाज़ार और पड़ोस के लोगों को आम तौर पर यही तजुर्बा था कि वो अपनी बीवी से दबते हैं। कुछ लोगों का कहना था कि आशा भाभी के पैर का अँगूठा चूँकि उनके शौहर के अंगूठे से बड़ा है, इसलिए वो क़ुदरती तौर पर मुँह-ज़ोर हैं। ग़ुस्सा किस बात पर था, ये बात अहम नहीं है, अहम बात ये है कि आशा भाभी को मारने कूटने की आवाज़ें भी आने लगीं। पड़ोस के दो एक शरीफ़-ज़ादों ने आपस में मश्वरा किया कि दरवाज़ा खटखटा कर बात का पता लगाना चाहिए मगर अभी वो पाजामों में पांव डाल ही रहे थे कि शोर बंद हो गया। कुछ देर तक इधर उधर चे-मिगोईयां होती रहीं, मगर बात ख़त्म हो जाने की वजह से पूछताछ के सिलसिले को सुबह के काँधों पर टांग कर लोग लंबी तान कर सो गए।

मगर जब सुबह आँख खुली तो ये जान कर भौंचक्का रह गए कि आशा भाभी के शौहर की लाश पुलिस की मौजूदगी में निकाली जा रही है, कहीं कोई ख़ून वून के आसार नहीं थे, और बाद की तफ़तीश में मालूम भी यही हुआ कि शौहर साहब दिल का दौरा पड़ने की वजह से दुनिया से सिधार गए हैं, लेकिन आस-पास के लोगों ने आशा भाभी को इसका क़सूरवार ठहरा दिया। उनकी नज़रों में वो एक क़ातिल औरत थीं। रात को जो लोग उनसे हमदर्दी रखते थे, सुबह वही उनके दुश्मनों में तब्दील हो गए।

एक डेढ़ महीने में मश्वरे होने लगे कि किस तरह आशा भाभी के मुहल्ले में रहने की वजह से वो हर वक़्त दहश्त में रहते हैं। माएं अपने बच्चों को आशा भाभी के घर के नज़दीक भी न जाने देती थीं। रफ़्ता-रफ़्ता आशा भाभी का घर भूत बंगले के नाम से मशहूर हो गया। मुहल्ले के दुकानदार भी उनसे कतराने लगे, वो सौदा सलफ़ लेने जातीं तो मर्द उन्हें दूर से देखकर अपनी बीवीयों, बेटीयों को आगे कर देते, जो कि उनसे माफ़ी मांग लेतीं। आशा भाभी पर पड़ने वाली इस मुसीबत ने, उन्हें ख़ुद भी तन्हाई पसंद बना दिया। वो नफ़्सियाती (मनोवैज्ञानिक) तौर पर कुछ मुतास्सिर भी हुईं। बाज़ दफ़ा उन्हें अपनी बालकनी में खड़े हो कर लोगों के सामने चीख़ चीख़ कर अपने होने का ऐलान करते देखा गया। रातों को वो कई दफ़ा अपने ही मुहल्ले में टहलती हुई नज़र आतीं, उन्हें देखकर कुछ डरपोक क़िस्म के नौजवानों की गिग्घियां भी बंध चुकी थीं। मगर रफ़्ता-रफ़्ता उन्होंने अपनी क़िस्मत को क़बूल कर लिया। उन्होंने इस मुहल्ले को अदम-आबाद (वीरान जगह) तसव्वुर करके, पड़ोस के बाज़ार से रिश्ता जोड़ लिया। जहां उनके बारे में उड़ती उड़ती उल्टी सीधी ख़बरें ज़रूर पहुँचती थीं, मगर उनका असर आशा भाभी की ज़िंदगी के मामूलात को रोक पाने में नाकाम था। वो सौदा सलफ़ लातीं, वक़्त काटने के लिए उन्होंने रिसालों और किताबों से नाता जोड़ लिया था।

आशा भाभी की ज़िंदगी के बारे में इतना कुछ जान लिया, मगर अभी तक आपने उनका हुल्या ना पूछा। वो बयालीस साल की हैं। बयालीस साल में आम तौर पर हमारे यहां औरतें बेडौल हो जाती हैं, उनके पेट निकल आते हैं, रंग गहरा हो जाता है, उनके बातूनी पन में इज़ाफ़ा हो जाता है, रूढ़ा और ज़िंदगी का अकहरा पन उन्हें बेहद बोर और बेरंग बना देता है। मगर आशा भाभी के साथ ऐसा नहीं हुआ, उनकी जवानी जैसे किसी सातों पर्दों में छुपे हुए भंवरे के किसी पर में मौजूद थी, और जब तक वो पर न टूटता मालूम होता था, उनके हुस्न का बाल बीका होना मुम्किन नहीं है। मुहल्ले के कई लड़के, इस तमाम-तर ख़ौफ़ और दहश्त के बावजूद, दिल में उनके लिए हसरत पाले बैठे थे। उनका रंग तो साँवला था, मगर पेशानी कुशादा थी, बाल ऐसे जैसे किसी रेशमी थाल से उतारे गए ताज़ा, घने काले धागे हों, बाल क्या था, बाली थी। पसलियों से हँसलियों तक एक एक हिस्सा, जैसे दावत-ए-नज़ारा देता मालूम होता था। कमर का लोच, गर्दन की चिकनाहट, शानों की चमक, सीने की उबली हुई दो तनी हुई फाँकें। जहां से जिसकी नज़र पड़ जाये, वो हैरान रह जाये। कभी कभी जब वो पीठ को नुमायां करती हुई झमझम साड़ी में बाज़ार से पलट रही होतीं तो देखने वाली निगाहें, बड़ी दूर तक उनका पीछा करतीं। ऐसा नहीं था कि वो इन बातों से बे-ख़बर थीं, मगर जिन्स (सेक्स) की पुजारी नहीं थीं, उनके आदत-ओ-अत्वार में एक सलीक़ा था। किसी को रिझाकर उसे अपने बिस्तर तक ले आना, उनके लिए कोई मामूली बात न थी। मगर वो चाहती थीं कि कोई अगर हो तो ऐसा जो क़द्र-शनासी का हुनर रखता हो, जो इस साँवले याक़ूत की चमक और क़ीमत को जानता हो, जो बदन को रौंद कर निकल जाने वाला न हो, बल्कि उसपर अपनी उंगलियों से वैसे ही नक़्श बनाने वाला हो, जैसे गोदाम नुमा कमरे में रखे हुए पुराने बर्तनों पर बने दाइमी नक़ूश थे। कोई ऐसा जो आज की साइंसी और दरयाफ़तों वाली दुनिया में भी, शायर की तरह उन्हें चाहे। ऐसा न हो कि बस वस्ल मना कर लँगोट बाँधने की जल्दी में रहे, बल्कि उनके उर्यां बदन पर वस्ल के बाद भी ज़बूर (यहूदियों की मुक़द्दस किताब) जैसे मद्धम और मुलाइम गीत लिखे। उन्हें वो बातें बताए, जो वो ख़ुद के बारे में जानती तो हों, मगर ख़ुद से करते हुए कतराती हों। उनके हुस्न की चांदनी में भीगे, उनके रूप की धूप में नहाए। और सबसे बड़ी बात ये कि मोहब्बत के लम्हों में आँखों से जज़बात के सारे रंग उलट दे, लफ़्ज़ की सारी गठरियां खोल दे, मगर होश के नाख़ुन आते ही, बेदारी की दुनिया में पलटते ही उन्हें आशा से फिर आशा भाभी हो जाने की तरफ़ लौट जाने दे, उनके राज़ों भरे, रूमानी, जिन्सी और जुर्म से अटे हुए क़िस्सों की दुनिया में। जहां वो अकेली हों, जहां सिर्फ़ उन्ही की हुकूमत हो। ऐसा कोई मिलना तो क्या होना ही मुश्किल था। आदमी ज़ात मोहब्बत नहीं कर सकती, वो जल्दबाज़ होती है। उसे हसीन से हसीन बदन को निवाले की तरह ठूँसने और घूँट की तरह निगल लेने का तरीक़ा ही आता है। आदमी कभी नहीं समझता कि औरत रात की तरह भेदों भरी दुनिया में, तारीकी और रोशनी के मिले जुले समुन्दर की अमीन है। उसे हड़पना नहीं, बरतना चाहिए। वो मौसम की तरह अपने मिज़ाज के हिसाब से खुल कर बरसती है, टूट कर गरजती है, गर्म हो तो चन्दियाँ तक जला दे और सर्द हो तो तलवों की आग तक को ठंडा कर दे।

अच्छा अब आगे सुनिए, आशा भाभी के मकान के सामने टेढ़ी तरफ़ को एक खिड़की आपको दिखाई दे रही होगी। ये नहीं, इससे नीचे, जी हाँ, ठीक यही। यहां अभी एक पट खुला हुआ है, थोड़ी देर रुकीए, अभी दूसरा पुट भी खुलेगा, रौशनी भी होगी और एक साया सा मंडराता हुआ खिड़की में मैले चांद की तरह उतरता दिखाई देगा। ये मंज़र आशा भाभी अपने घर के किचन से पिछले चार दिनों से देख रही हैं। कोई है, जो उन्हें ठीक इसी वक़्त दूध उबालते हुए देखता है। आशा भाभी इससे पहले तो दूध के उबलने तक दूसरे काम निमटा लिया करती थीं, मगर चार दिन से, यानी जब से किसी के देखने का गहरा एहसास उनकी आँखों में समाया है, वो दूध उबलने तक यहीं खड़ी रहती हैं। एक दो दिन उन्होंने इन निगाहों की तपन को अपने चेहरे और बदन पर महसूस तो किया मगर अच्छी तरह निगाहें उठाकर वहां न देखा, मगर कल शाम उनसे ना रहा गया। उन्होंने देखा कि इस खिड़की में से एक लड़का, जिसकी उम्र का अंदाज़ा इतनी दूर से ठीक ठीक करना मुश्किल था, उन्हें देख रहा है। आशा भाभी को चार दिन बाद ये खेल अच्छा लगने लगा। वो अब ठीक इसी वक़्त दूध उबालने आतीं।

लड़के के ख़ुतूत नुमायां ना होने के बावजूद महसूस होता था कि वो क़ुबूल-सूरत है। मगर जो बात सबसे बड़ी थी वो ये कि जितनी देर आशा भाभी वहां खड़ी रहतीं, वो उन्हें देखता रहता। इसके बावजूद कि दोनों की निगाहें मिल रही थीं, उसकी आँखों में आशा भाभी के लिए कोई ख़ौफ़ न था, एक वालिहाना-पन था, जैसे वो किसी मुसव्विर की बनाई तस्वीर देख रहा हो, किसी तारीख़ी इमारत में घूम घूम कर एक एक दीवार को उंगलीयों से महसूस कर रहा हो, उस इमारत की कहानी को अपनी निगाहों की मायूसी से ज़मानों और अफ़्वाहों के पर्दे चीर कर अच्छी तरह पढ़ लेना चाहता हो। आँखें शनासाई की बेहतरीन गवाह हैं, दो लोग आँखों में आँखें डाल कर इस बात को मालूम कर सकते हैं कि वो कब तक एक साथ रहेंगे।

अब आशा भाभी का ये रोज़ का मामूल था कि वो दिन-भर इधर उधर के कामों में वक़्त गुज़ारतीं, मगर हर लम्हा उनका ध्यान शाम के इसी पहर पर जाता, जब वो खिड़की खुलेगी और वहां से झाँकती हुई एक नौजवान की निगाहें, उनको बेताबी और बे फ़िकरी से तका करेंगी। वो दोनों निगाहों ही निगाहों में दुनिया जहान की बातें करेंगे। न किसी फ़ोन नंबर की ज़रूरत होगी, ना किसी ख़त-ओ-किताबत की। बस निगाहों की दुनिया में दो बदन सारी मंज़िलों से गुज़र जाऐंगे। बाज़-औक़ात आशा भाभी को महसूस होता कि उस लड़के की निगाहें, उनके सीने को अपनी मुट्ठियों में भींच रही हैं। एक दफ़ा उन्होंने दूध पकाते वक़्त अपने आपको गर्मी के बहाने का धोका देते हुए, ब्लाउज़ को काफ़ी हद तक खोल दिया था, जिससे उनके पस्तानों की चिकनी गोलाइयाँ, तनी हुई दो नन्ही कीलों समेत बाहर की तरफ़ दौड़ पड़ी थीं, गोया लड़के के सीने में धँस जाना चाहती हों। एक दफ़ा वो पत्थर के सिल पर गैस के बराबर बैठ कर अपनी साँवली पिंडलियों को खोल कर उन पर उंगलीयों से कुछ लिखने लगीं। मालूम होता था कि किसी हिसपानवी शायर का लिखा हुआ कोई वस्ल का गीत, उनकी देहाती पिंडली में उतर आया हो, जहां बालों का नाम-ओ-निशान न था। ऐसा महसूस होता था, जैसे साँवली छत पर चांदनी में डूबे हुए परिंदे रक़्स कर रहे हों।

दिन ब दिन आशा भाभी की बे-ताबी बढ़ती जा रही थी। वो उस लड़के के बारे में जानना चाहती थीं। आँखों की इस फुहार ने उनके सूखे हुए बदन की बे-जान मिट्टी में रूह फूंक दी थी। अब वो दिन में कई दफ़ा उंगलियां चटख़ातीं। दाँतों से नाख़ुन कुतरतीं, गले पर हौले हौले उल्टी जानिब से उंगलीयों के फरेरे लगातीं, सिसकियाँ लेतीं, आहें भरतीं।

बाज़ार से एक दिन कुछ सामान लाते समय वो उस बिल्डिंग की उसी खिड़की के नीचे रुक गईं। चिलचिलाती हुई धूप थी। चील अंडा छोड़ रही थी, ऐसे में उनके दिल में शदीद ख़्वाहिश पैदा हुई कि फाटक पर जाकर किसी से पूछें कि दूसरी मंज़िल पर कौन रहता है, मगर फिर मुहल्ले वालों की बेरुख़ी और ख़ौफ़ का ख़्याल करके उन्होंने इरादा बदल दिया। मुँह ऊपर उठाकर उसी खिड़की को हसरत से एक दफ़ा देखा कि शायद कोई नज़र आ जाए मगर कोई फ़ायदा न हुआ। खिड़की के दोनों पट धूप की चादर ओढ़े एक दूसरे से लिपटे हुए बे-ख़बर सो रहे थे। घर आकर वो सामान रख रही थीं कि एक ख़्याल ने उनकी आँखों को चौंका दिया। आज तक उन्हें ये ख़्याल क्यों नहीं आया। कहीं ऐसा तो नहीं कि दूध उबालने से उस लड़के के दिख जाने का कोई गहरा तअल्लुक़ हो, बचकाना ही सही मगर उम्मीद तो थी। वो सामान को तितर-बितर छोड़कर तेज़ी से किचन में गईं, सामने वाली खिड़की का पट धाड़ से खोला और ठंडा दूध फ़्रिज से निकाल कर एक पतीली में उंडेला और गैस पर उसे चढ़ा दिया। दूध उबलता रहा और वो बे-क़रारी के साथ सामने वाली खिड़की को देखती रहीं। पता ही न चला कि कब दूध उबल कर बहने लगा, जब तक एहसास हुआ, काफ़ी दूध पत्थर पर गिर चुका था। उन्होंने गैस को बंद किया, पतीली को पास पड़ी एक ढकनी से ढाँका और ग़ुस्से में जाकर यूंही पलंग पर लेट गईं, बहुत देर तक वो उस लड़के की इस बेवक़ूफ़ी पर ग़ुस्सा होती रहीं। ख़ुद पर भी उन्हें बेहद अफ़सोस हुआ कि वो किस तरह के जाल में फंस रही हैं। उन्हें क्या ज़रूरत है कि वो एक अनजान लड़के को इस तरह रोज़ रोज़ अपने जादुई हुस्न का दीदार कराती फिरें। ना-मर्द कहीं का। सिर्फ़ देखता ही रहेगा, इतनी भी हिम्मत नहीं कि उनका दरवाज़ा खटखटाले। अरे कोई इशारा ही कर दे, कोई चिट्ठी फेंक दे, कोई पत्थर उछाल दे। अब आए कम्बख़्त, मैं शाम को जाऊँगी ही नहीं। वैसे भी दूध तो मैंने पका ही लिया है। न जाने कब तक इसी ग़ुस्से में बड़बड़ाते बड़बड़ाते और अपने अन-देखे दुश्मन महबूब को गालियां और धमकीयां देते हुए उनकी आँख लग गई।

जब आँख खुली तो रात हो रही थी। वो पहर बीत चुका था, जब वो रोज़ाना दूध पकाया करती थीं और लड़का पट खोल कर उन्हें हसरत भरी निगाहों से देखा करता था। फिर भी वो किचन में गईं, पके हुए दूध की पतीली से एक ग्लास दूध निकाल कर धीरे धीरे पीते हुए सामने वाले घर की खिड़की पर नज़र जमाए रहीं। पट उसी तरह एक दूसरे से गुथे हुए थे, रौशनी भी न थी। दूध का ग्लास ख़त्म होने के बाद उन्होंने आहिस्तगी से उठकर किचन में ग़ैर-ज़रूरी काम निमटाए, हर काम बेहद तसल्ली से किया। बर्तन धोते वक़्त भी, हर थोड़ी देर में आकर वो खिड़की को देख जातीं। बहरहाल मजबूर हो कर रात गए उन्होंने अपनी खिड़की को ढुलकाया और दिन का लाया हुआ सामान तर्तीब से लगा कर एक जिस्मानी क़िस्सा पढ़ने लगीं। क़िस्सा इतना दिलचस्प था कि उनकी थरथराती उंगलियां कब नाफ़ के नीचे पहुंच कर शोर मचाने लगीं, ख़ुद उन्हें भी एहसास ना हुआ। थोड़ी देर में किताब एक तरफ़ पड़ी थी, और आशा भाभी के बदन से सामने वाली बिल्डिंग का वही लड़का लिपटा हुआ था, वो उनके वजूद में ज़म होता जा रहा था। एक तरफ़ दूध उबल रहा था, और उसके उबाल के साथ ही गर्म गर्म भाँप की रस्सियों पर साँसों और सिसकियों के ग़ैर मौजूद परिंदे बैठते, फड़फड़ाते और उड़ते जा रहे थे। लड़के के बाज़ुओं की मछलियाँ, आशा भाभी की कमर को अजगर की तरह अपने अंदर लपेट रही थीं, मगरमच्छ की तरह मौत की चक्कर बाज़ियां दिखा रही थीं। उनके बदन का हर एक रोंगटा, लड़के की आँखों से निकलने वाले तेज़ाबी लुआब की चादर में धंसता जा रहा था, दबता जा रहा था। उनकी नाफ़, रान और अंदाम ए उर्यानी पर लड़के की ताबनाक निगाहों के गर्म गर्म बोसों ने उन्हें निढाल करके रख दिया और वो धब् की एक अजीब सी आवाज़ के साथ पलंग से गिर पड़ीं।

सुबह बड़ी देर से उनकी आँख खुली। आशा भाभी ने एक भरपूर जम्भाई के साथ बदन तोड़ कर रख देने वाली अंगड़ाई ली। वो खुले बालों और फटे लिबास के साथ बजाय वॉश-बेसिन पर जाने के किचन में आईं, और हल्के से खिड़की के पट को उन्होंने उंगलीयों से परे धकेला। चीख़ती हुई धूप मंज़र पर बिखरी पड़ी थी। आसमान अपनी नंगी नीलाहटें लिए किसी बेशर्म बूढ़े बाप की तरह सूरज की ना-फ़रमानी पर आँखें मूँदें औंधा लेटा था। किसी सफ़ेद-ओ-स्याह बादल का दूर-ओ-नज़दीक कोई निशान तक न था और सामने वाले मकान की खिड़की के दोनों पट बदस्तूर एक दूसरे के गले लगे सो रहे थे।

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तसनीफ़
तसनीफ़ हिन्दी-उर्दू शायर व उपन्यासकार हैं। उन्होंने जामिआ मिल्लिया इस्लामिया से एम. ए. (उर्दू) किया है। साथ ही तसनीफ़ एक ब्लॉगर भी हैं। उनका एक उर्दू ब्लॉग 'अदबी दुनिया' है, जिसमें पिछले कई वर्षों से उर्दू-हिन्दी ऑडियो बुक्स पर उनके यूट्यूब चैनल 'अदबी दुनिया' के ज़रिये काम किया जा रहा है। हाल ही में उनका उपन्यास 'नया नगर' उर्दू में प्रकाशित हुआ है। तसनीफ़ से [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है।

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