इन दिनों धरती अपनी धुरी पर रुकी है
रात चन्द्रमा नहीं दिखा, अमावस भी न थी
सूरज देर से उठा पसीना-पसीना होकर

गोधूली बेला गोवंश की राह तकती रही
श्वानों की आवारगी आलस कर रही है
जंगल का राजा राजकाज को राज़ी नहीं

कौवा चमगादड़ के रंग से ख़ौफ़ज़दा हैं
देर से बौराये आम पर कोयल नाराज़ है
गुमशुदा गौरैया गहरा राज साथ ले गयी है

हवा की नमी गमी की गुनहगार कही जा रही है
चुल्लू भर पानी के चुल्लू पानी पानी हो गये हैं
अग्नि, चिताओं और चिन्ताओं में राख हो रही है

मनुष्य प्रपंच कर अपनी ही चहरदीवारी में नज़रबन्द है
उसपर नरसंहार का संगीन आरोप साबित होना है
कृत्रिम जैविक बुद्धिमत्ता नैसर्गिक साक्ष्य जुटा रही है…

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मनोज मीक
〽️ मनोज मीक भोपाल के मशहूर शहरी विकास शोधकर्ता, लेखक, कवि व कॉलमनिस्ट हैं.

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