लेखक लक्ष्मण राव को एक वीडियो में कहते सुना था कि कोई कवि या लेखक पचास वर्ष की उम्र पूरी होने के बाद जन्मता है और उसकी ज़िन्दगी उसकी मृत्यु के बाद शुरू होती है।

कल जब से कुँवर नारायण के निधन की खबर आयी है, तभी से सभी साहित्य-प्रेमी, कविता-प्रेमी, उनकी कविताओं और लेखों के ज़रिये उन्हें याद कर रहे हैं। कोई उनकी किताबों के वे अंश साझा कर रहा है, जिनका प्रभाव उस व्यक्ति के जीवन पर रहा होगा और कोई वे प्रिय कविताएँ जिनसे वह अपने मस्तिष्क में, अपनी चेतना में कुँवर नारायण को परिभाषित करता रहा है। ऐसे में कुछ ऐसे भी लोग होंगे जिन्होंने कुँवर नारायण को इन अंशों के माध्यम से पहली बार पढ़ा होगा और थोड़ा ही पढ़कर शायद उन्हें कुछ और पढ़ने का सोचा होगा.. यही नया पाठक, एक नया खोजी, इस कवि की मृत्यु का साक्षी नहीं, उसका एक और नया जीवन है..। जहाँ एक आम इंसान अपनी मृत्यु के बाद कुछ ही वर्षों तक याद किया जाता है, वहीं कुँवर नारायण जैसे कवि, उनके नए-पुराने पाठकों के ज़रिये सैंकड़ों वर्षों तक याद किए जाएँगे.. जब तक हिन्दी रहेगी तब तक..

मैंने निजी तौर पर भी कुँवर नारायण को अभी तक नियमित और प्रयाप्त रूप से नहीं पढ़ा। ‘कोई दूसरा नहीं’ और ‘कुमारजीव’ मेरी शेल्फ पर रखी जाने कब से इंतज़ार कर रही हैं..। अब शायद उस इंतज़ार की अवधि कम हो जाए। लेकिन मेरा उनकी कविताओं से परिचय कुछ साल पुराना है और उनके ‘नयी कविता’ में योगदान के बारे में भी पढ़ता रहा हूँ तो उनके कार्य और व्यक्तित्व से हमेशा से अभिभूत रहा।

खुद को लगातार एक बेहतर इंसान बनाने की प्रेरणा देती और खो चुके मानवीय मूल्यों को फिर से स्थापित करती उनकी कविताएँ एक सरल चेतावनी और एक विनम्र हिदायत के बीच कहीं विश्राम करती हैं। मृत्यु के भी आगे का रास्ता बताता यह कवि इस रास्ते पर चलती अन्य यात्राओं में हमेशा ज़िंदा रहेगा.. आज मैं भी उन्हें याद करते हुए उनकी वे कविताएँ जो मुझे बहुत पसंद हैं, साझा कर रहा हूँ, इस आशा में कि कुछ और नए पाठक इस कवि को पढ़ेंगे और उन्हें युगों तक जीवित रखेंगे-

1) प्यार की भाषा

मैंने कई भाषाओँ में प्यार किया है
पहला प्यार
ममत्व की तुतलाती मातृभाषा में…
कुछ ही वर्ष रही वह जीवन में:

दूसरा प्यार
बहन की कोमल छाया में
एक सेनेटोरियम की उदासी तक :

फिर नासमझी की भाषा में
एक लौ को पकड़ने की कोशिश में
जला बैठा था अपनी उंगुलियां:

एक परदे के दूसरी तरफ़
खिली धूप में खिलता गुलाब
बेचैन शब्द
जिन्हें होठों पर लाना भी गुनाह था

धीरे धीरे जाना
प्यार की और भी भाषाएँ हैं दुनिया में
देशी-विदेशी

और विश्वास किया कि प्यार की भाषा
सब जगह एक ही है
लेकिन जल्दी ही जाना
कि वर्जनाओं की भाषा भी एक ही है:

एक-से घरों में रहते हैं
तरह-तरह के लोग
जिनसे बनते हैं
दूरियों के भूगोल…

अगला प्यार
भूली बिसरी यादों की
ऐसी भाषा में जिसमें शब्द नहीं होते
केवल कुछ अधमिटे अक्षर
कुछ अस्फुट ध्वनियाँ भर बचती हैं
जिन्हें किसी तरह जोड़कर
हम बनाते हैं
प्यार की भाषा

2) मैं कहीं और भी होता हूँ

मैं कहीं और भी होता हूँ
जब कविता लिखता

कुछ भी करते हुए
कहीं और भी होना
धीरे-धीरे मेरी आदत-सी बन चुकी है

हर वक़्त बस वहीं होना
जहाँ कुछ कर रहा हूँ
एक तरह की कम-समझी है
जो मुझे सीमित करती है

ज़िन्दगी बेहद जगह मांगती है
फैलने के लिए

इसे फैसले को ज़रूरी समझता हूँ
और अपनी मजबूरी भी
पहुंचना चाहता हूँ अन्तरिक्ष तक
फिर लौटना चाहता हूँ सब तक
जैसे लौटती हैं
किसी उपग्रह को छूकर
जीवन की असंख्य तरंगें…

3) कविता की ज़रूरत

बहुत कुछ दे सकती है कविता
क्यों कि बहुत कुछ हो सकती है कविता
ज़िन्दगी में

अगर हम जगह दें उसे
जैसे फलों को जगह देते हैं पेड़
जैसे तारों को जगह देती है रात

हम बचाये रख सकते हैं उसके लिए
अपने अन्दर कहीं
ऐसा एक कोना
जहाँ ज़मीन और आसमान
जहाँ आदमी और भगवान के बीच दूरी
कम से कम हो ।

वैसे कोई चाहे तो जी सकता है
एक नितान्त कवितारहित ज़िन्दगी
कर सकता है
कवितारहित प्रेम

4) मामूली ज़िन्दगी जीते हुए

जानता हूँ कि मैं
दुनिया को बदल नहीं सकता,
न लड़ कर
उससे जीत ही सकता हूँ

हाँ लड़ते-लड़ते शहीद हो सकता हूँ
और उससे आगे
एक शहीद का मकबरा
या एक अदाकार की तरह मशहूर…

लेकिन शहीद होना
एक बिलकुल फ़र्क तरह का मामला है

बिलकुल मामूली ज़िन्दगी जीते हुए भी
लोग चुपचाप शहीद होते देखे गए हैं

5) ऐतिहासिक फ़ासले

अच्छी तरह याद है
तब तेरह दिन लगे थे ट्रेन से
साइबेरिया के मैदानों को पार करके
मास्को से बाइजिंग तक पहुँचने में।

अब केवल सात दिन लगते हैं
उसी फ़ासले को तय करने में −
हवाई जहाज से सात घंटे भी नहीं लगते।

पुराने ज़मानों में बरसों लगते थे
उसी दूरी को तय करने में।

दूरियों का भूगोल नहीं
उनका समय बदलता है।

कितना ऐतिहासिक लगता है आज
तुमसे उस दिन मिलना।

6) अबकी बार लौटा तो

अबकी बार लौटा तो
बृहत्तर लौटूंगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बांधें लोहे की पूँछे नहीं
जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूंगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों से

अबकी बार लौटा तो
मनुष्यतर लौटूंगा
घर से निकलते
सड़को पर चलते
बसों पर चढ़ते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेजगह कुचला पड़ा
पिद्दी-सा जानवर नहीं

अगर बचा रहा तो
कृतज्ञतर लौटूंगा

अबकी बार लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूंगा..

Previous articleरानी पद्मावती/पद्मिनी की कहानी (जायसी की ‘पद्मावत’ का व्याख्यान)
Next articleकहते हो.. प्यार करते हो.. तो मान लेती हूँ
पोषम पा
सहज हिन्दी, नहीं महज़ हिन्दी...

5 COMMENTS

  1. सर् एक इजाज़त चाहता हूँ और क्षमा भी मैं चाहता हु की आपकी
    कुछ पंक्तियों को मैं अपने महाविद्यालय के कवि सम्मेलन बोलूं।।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here