मैंने अपनी माँ में कोई ऐसी महान चीज़ नहीं देखी
जो माँओं में देखी जाती है
या जिसकी महिमा गायी जाती है, पूजा की जाती है
ज़ाहिर है, मैं भी अपनी माँ के लिए वैसी नहीं रही
जैसा अच्छी बेटियों को होना होता है

मेरे लिए मेरी माँ नासमझ नादान बच्ची की तरह रही
और उसके लिए मैं एक बिगड़ैल और ज़िद्दी लड़की रही
हमारे झगड़े हुए, बहुत, बहुत…
जिनकी कल्पना माँ-बेटी के रिश्ते में नहीं की जाती
इस सबके बीच मैंने अपनी माँ को मेरे लिए भी लड़ते देखा
अपने बचपन और जवानी के गुज़रे वक़्तों को याद करते देखा
उसकी गालियों के बीच की सच्चाइयाँ मुझमें और उसमें एक रिश्ता ज़रूर कायम करती थी
मगर माँ-बेटी के पवित्र कहे जाने वाले रिश्ते-सा तो कभी नहीं

माँ की ममता की याद बहुत कमज़ोर दिखती है
उसके एक औरत की तरह जिए जाने वाले ठोस जीवन की तुलना में
माँ से ज़्यादा मैंने उसे औरत की तरह जाना
मुझे उसके संघर्षों की कथाएँ याद हैं

ख़ैर अब हम दूर ही हैं
और इतने सालों में भी माँ और बेटी के सम्बन्ध में हमारी कोई उपलब्धि नहीं रही
हमने कोई महानता भी अर्जित नहीं की

फिर भी हम दोनों को एक-दूसरे का ज़िन्दा होना और लड़ते रहना सुकून देता है।

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