मैं सत्यवादिनी, कृष्ण की सहेली
मैं पंचामी, फिर भी हूँ नितांत अकेली
अनंत संताप की कथा
मैं हर घर की स्त्री की व्यथा
काम क्रोध मद्य लोभ की देखी सदी
मैं द्रुपदकन्या, मैं द्रौपदी
मैं यज्ञसेनी, यज्ञकुंड की अग्नि में क्षण क्षण जली
घृणा अपमान के ज़हर में मैं कण कण पली
एक युग के अंत की परिचालक हूँ मैं
औरत के सम्पूर्ण अस्तित्व की परिपालक हूँ मैं
इतिहास में दर्ज मौन आवाज़ों की नदी
मैं कृष्णा, मैं द्रौपदी
मैं नित्ययुवानी, सौंदर्य में सम्पूर्ण मगर फिर भी पूर्ण नहीं
वक़्त के निरंतर अंतराल पे लज्जा की सड़कों पर मैंने पीड़ा सही
आत्मा को खिंचती आई अनगिनत कांटों के बीच
विवशता के दरबारों में रजस्वला नारी को खींच
निर्वस्त्र सोच आज भी कहाँ आगे बड़ी
मैं पांचाली, मैं द्रौपदी
मैं सैरन्धी, कुल वधु से वस्तु पात्र बन गई
पराक्रमी पतियों की स्वामित्य मात्र बन गई
मान अपमान के कुरुक्षेत्र में मैं आज भी खड़ी हूँ
पुरुष प्रधान समाज में चक्र दर चक्र अनवरत लड़ी हूँ
अधर्म और प्रतिशोध की बलिवेदी पर चढ़ी
मैं योजनगंधा, मैं द्रौपदी
मैं महाभारती,
क्या मैं हूँ महाभारत की रचेता ??
याँ तुम ? तुम ? तुम ?