शाम के लिए
पिघली है धूप
लौटा है सूरज किसी गह्वर में
लौटी हैं आंखें, लौटे हैं पंख
लौटी हैं चोंच
बिजली खम्भों पर देखो, ढीली तारों को
कोई डाल लौट आयी है
यही शाम की परछाई है
शाम कितनी बोझिल है
मैं चलता हूँ तो डेग फँसती है
ताकता हूँ आकाश
मुझे भूरी-सी बीमारी है : हवा कहती है आंखों से
फिर भी ढूँढता हूँ आकाश, गिनता हूँ तारा
“एक तारा : आरा बारा
दो तारा : खाटी पारा
तीन तारा : मानुस मारा
चार तारा : कोसे-कोस
पाँच तारा: कुछ नहीं दोष”
पूरा आसमान टटोलता हूँ इसी शहर से
पहुँचता हूँ जैसे
गाँव के आँगन तक
पिता की बाहों तक
नहीं गिन पाता हूँ पाँच तारे
मैं पाँचवे का दोषी हूँ
मैं हवा का दोषी हूँ…