‘Mere Bachche Mujhse Poochhenge’, a poem by Anupama Sansanwal
मेरे बच्चे मुझसे पूछेंगे
जब किताबों में ही देखेंगे
नदी पहाड़ और पेड़-
कैसे बहती थी नदी?
तेज़ या रुककर
कहाँ जाता था पानी?
नीचे या ऊपर?
क्या बाल्टी भर आता था
नल की तरह,
और फिर चला जाता था?
कहाँ से लाती थी नदी पानी इतना?
क्या उसका बिल नहीं आता था?
मैं उत्तर सोचने लगूँगी कि
प्रश्न फिर बरसेंगे-
हमने कहीं पढ़ा था
दिल्ली में नदी थी
यमुना नाम था उसका
वह थोड़ी-सी उथली थी,
एक बरसात में बाढ़ आती थी उसमें
एक तेज़ धूप सुखा जाती थी उसे
आप लोगों ने उसे इतना प्यार दिया
आपके प्यार ने ही उसे मार दिया।
अब विषय बदल पहाड़ों पर पहुँच गए
बोले- माँ, आपने कहा नदी पहाड़ से आयी,
पर ये ना बताया कि पहाड़ी को कौन लाया?
क्या पहाड़ी भी मर गए?
या
आप खाना छोड़ उन्हें ही निगल गए?
इतनी सुरंगें बनायीं कि पहाड़ ही समतल हो गए।
बताओ ना माँ ये पहाड़ किधर गए?
क्या बताऊँ कि इतना खनन किया
कि एक ही भूस्खलन में सारे फिसल गए।
तभी वह बोला, चलो पेड़ की कहानी सुनाओ
पेड़ होते थे पहाड़ों में
मेरी नानी के गलियारों में
मेरी दादी के खलिहानों में।
शहरों में भी देखते थे कहीं
सड़कों के किनारों पर
हमने उन्हें भी नष्ट कर दिया।
पृथ्वी पर जीना ही भ्रष्ट कर दिया।
एक दम से नहीं मारा उन्हें
तिल-तिल मरने की छोड़ दिया।
क्रंकीट से घेर डाला उन्हें
मर रहे थे रोज़ थोड़ा-थोड़ा,
एक तेज़ हवा आयी,
तो मिली थी मुक्ति उन्हें।
इतने निर्दयी थे तुम
पुरखों से भी ज्ञानी तुम
इतनी हत्याएँ कीं पर आज तक
बच्चे हुए हो तुम।
ना रही नदी, ना रहे पहाड़ और ना रहे पेड़,
कल ना रहेगी ये धरती ना रहेगा जीवन,
बताओ माँ कैसे जिएँगे हम?
क्या कहूँगी, जब मेरे बच्चे मुझसे पूछेंगे?