किसी सुबह उठूँ और
चल दूँ किसी अनजान दिशा की ओर
न पूरब न पश्चिम न उत्तर न दक्षिण

जिस दिशा में सिर्फ़ पंछी उड़ा करते हैं।

किसी दूर शहर का टिकट कटाकर
पास के ही शहर में उतर जाऊँ
किसी सस्ते होटल में रतजगा करूँ और पैदल नाप लूँ शहर का
कोना-कोना।

किसी कविता की पंक्ति पर देर तक ठहर जाऊँ
कोई संगीत सुनकर पागल हो जाऊँ
किसी मरी हुई नायिका की याद में जी भर रो लूँ
किसी को भूल जाने का नाटक कर लूँ।

जैसा कि सबके होते हैं
मेरे भी हैं— मेरे ख़्वाब।

दो जीन्स, चार टीशर्ट वाली कबर्ड में
ख़तों के अलावा कुछ भी न हो।

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दीपक सिंह
कवि और लेखक। विभिन्न प्लेटफॉर्म पर कविताएँ एवं लघु प्रेम कहानियाँ प्रकाशित। बिहार के कोसी प्रभावित गाँवों में सामाजिक और आर्थिक रूप से शोषित लोगों के लिए अपनी सेवा में कार्यरत।

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